शनिवार, 16 जुलाई 2011

सरकार के पास सिर्फ बातों की बुलेट ट्रेन



सौ किलो मीटर प्रति घंटे से भी ज्यादा की रफ्तार से दौड़ती यात्री ट्रेन के अगर अचानक आपात कालीन ब्रेक लग जाएं तो क्या होगा? सिर्फ तबाही। मौत का तांडव। कोहराम और चीख पुकार। हावड़ा से दिल्ली जा रही कालका मेल के साथ भी यही हुआ। अब, इससे ज्यादा हो भी क्या सकता है? प्रभावितों के परिजनों को बतौर मुआवजा सरकारी एहसान से लादने की कोशिश चल रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सीधी निगरानी में चल रहे सुस्त राहत कार्यो पर रोना आ रहा है। एक और उच्च स्तरीय जांच शुरू कर दी गई है। प्रधानमंत्री ने हताहतों और पीड़ितों के प्रति गहरा दुख जताते हुए संवेदना प्रकट की है। सवाल यह है कि संवेदनाएं प्रकट करने के इन घड़ियाली आंसुओं से अब क्या हासिल होगा? समूची सरकारी व्यवस्था को संवेदनशील बनाए बिना ये सियासी टेसुए भी नाहक में ही बह जाएंगे। पश्चिम बंगाल में सीएम की कुर्सी पर ममता बैनर्जी की ताजपोशी के बाद भारत सरकार स्थाई तौर पर एक अदद केंद्रीय रेल मंत्री का इंतजाम नहीं कर पाई है। यूपीए सरकार के बड़बोलों की बोली में इसे गठबंधन सरकार की विडंबना ही कहिए कि सरकार को लाखों -लाख यात्रियों से ज्यादा फिक्र ममता की है। रेल मंत्रलय से ममता का मोह जगजाहिर है। वह किसी भी हालत में रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखना चाहती हैं, लिहाजा तृणमूल के राज्यमंत्री मुकुल राय के पास रेल मंत्रलय का प्रभार है। सियासी नफे-नुकसान की पटरियों पर दौड़ रही कालका अगर ऐसे में अपने ही यात्रियों के लिए काल बन जाती है तो इसमें आखिर कसूर किसका है? असल में विश्व का यह सबसे बड़ा रेल नेटवर्क राजनीतिक हितों की भेंट चढ़ चुका है और इसकी कीमत आम आदमी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है। वोट के लिए यात्री सुविधाओं के नाम पर सरकार लोकलुभावन घोषणाओं के बीच बातें तो बुलेट ट्रेनों की करती है,लेकिन हकीकत यह है कि तमाम रेल हादसों के बाद भी रेल मंत्रलय अभी तक राहत और बचाव के तौर तरीके तक नहीं सीख पाया है। सवाल यह है कि जब-जब ऐसे हादसे होते हैं तब-तब रेल सुविधा और सुरक्षा के नाम पर दिखाए गए भारी भरकम बजटीय आंकड़ों की असलियत आम आदमी को क्यों नहीं दिखती है? सुरक्षित सफर की गारंटी पर ऐसे गंभीर सवाल कोई नई बात नहीं है। गनीमत तो यह है कि हादसे की शिकार कालका का ड्राइवर जिंदा है ,वर्ना दरुघटना के लिए इसी ड्राइवर को दोषी मानकर कथित उच्च स्तरीय तकनीकी जांच की एक और फाइल बंद कर दी जाती। शुरूआती जांच में इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि कालका कांड गंभीर तकनीकी भूल का नतीजा है। आमतौर पर ऐसी दुर्घटनाओं के लिए रेल परिचालन में मौजूद तकनीकी त्रुटियां ही जिम्मेदार होती हैं ,लेकिन बावजूद इसके लाचार पटरियों का रखरखाव और सिग्नलों का आधुनिकीकरण भगवान भरोसे है। जोखिम कितना भयावह हो सकता है? अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के 1लाख 27 हजार पुलों में से लगभग 51 हजार पुल ऐसे हैं ,जो 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। अपनी उम्र खो चुके अंग्रेजों के जमाने के इन पुलों पर यात्री गाड़ियां सरपट दौड़ाई जा रही हैं। मानव रहित रेलवे क्रासिंग और तकनीकी अमले के अभाव के सवाल पर रेलवे के पास बजट का रोना स्थाई समस्या बन चुकी है।

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