प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मानें तो झगड़े की असली जड़ खंडित जनादेश है। जिसने अपनी दम पर केंद्र में कांग्रेस की ताजपोशी के सपने तार-तार किए हैं। जिसने देश में यूपीए की साझा सरकार लाद रखी है। अब, अगर गठबंधन की मजबूरियों के आगे प्रधानमंत्री लाचार हैं, तो इसमें उनका क्या कसूर है? जनतंत्र में जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार का निर्माण आखिर जनमत से ही तो होता है। अब जैसा भी है,जनादेश सिर माथे पर है। ऐसे में नैतिक जिम्मेदारी लेकर अगर मनमोहन पद से इस्तीफा देने की नहीं सोचते हैं तो यह भी उसी जनादेश के प्रति उनका नैतिक सम्मान ही है ,क्योंकि इससे सरकार हिल सकती है। वैसे भी महंगाई की मार से दोहरी हो रही जनता असमय एक और चुनाव बर्दाश्त करने की हालत में नहीं है। पिंट्र मीडिया के चुनिंदा संपादकों की इस बैठक में प्रधानमंत्री से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि एक नामांकित सांसद के रूप में आप आखिर किस निर्वाचित जनादेश का परिणाम हैं? अगर टू-जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों की हद तक गठबंधन सरकार लाचार है, तो क्या उसे सत्ता में बने रहने का अधिकार है? प्रधानमंत्री कहते हैं, आवंटन में भ्रष्टाचार का आकलन मुमकिन नहीं है। सवाल तो यह है कि जब वित्त और दूरसंचार मंत्रलय ने पहले आओ पहले पाओ की नीति बदल कर बोली के जरिए टू-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस देने की सिफारिश की थी तो आपने किस विवशता के कारण इसे मानने से इनकार कर दिया था? मनमोहन ने कहा कि कालेधन को स्वदेश लाने के हर संभव प्रयास कि ए जाएंगे? मगर उनसे यह कौन पूछे कि कालेधन की स्वदेश वापसी की प्रक्रिया और समय सीमा क्या होगी? उनसे किसी ने यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी कि अगर बाबा रामदेव के आंदोलन के साथ पुलिस का हिंसक बर्ताव दुर्भाग्य पूर्ण था तो आखिर किस मजबूरी के चलते पुलिस को गुंडागर्दी की इजाजत दी गई? अर्थशास्त्र में माहिर मनमोहन ने स्वीकार किया कि महंगाई से लड़ने के सभी हथियार उनके पास नहीं हैं । अब उनसे यह भी कौन पूछे कि महंगाई के महासमर में आप अगर आप निहत्थे हैं, तो इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? और किस जादुई छड़ी की दम पर आप जल्दी ही इसे 7 प्रतिशत पर लाने वाले हैं? पीएम ने कहा वह दोषी हैं मगर उतने नहीं.. प्रधानमंत्री की मीडिया नीति में आया ताजा बदलाव बताता है कि सचमुच उन्हें अपनी भूलों का तत्वज्ञान हो गया है। सात साल में यह तीसरा मौका था, जब बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया से मुखातिब हुए हैं। इसी साल फरवरी में वह इलेक्ट्रानिक मीडिया और पिछले साल सितंबर में प्रिंट मीडिया के संपादकों से रूबरू हुए थे। अब हर हफ्ते मीडिया से मुलाकात का इरादा है। भ्रष्टाचार खासकर जनलोकपाल बिल पर सरकार की घेराबंदी के बीच प्रधामंत्री मनमोहन सिंह से चुप्पी तोड़ने की दरकार थी। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर उनकी निजी राय का उत्सुकता से इंतजार था। यह दीगर बात है कि उनकी स्वीकारोक्ति में कोई नई बात नहीं है। इससे पहले पीएम की ही हैसियत से अटल विहारी वाजपेयी और उनसे भी पहले मोरार जी देसाई भी लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने के पक्षधर थे, लेकिन इन सब का भी एक ही धर्मसंकट था। मंत्रीमंडल के सहयोगी ना तो तब इसके पक्षधर थे और ना ही अब हैं।
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