झूला डालने की कोशिश में सात साल के अंश का पैर फिसला और उसके बाएं हाथ की कोहनी की हड्डी चटक गई। राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल हमीदिया के जूनियर डाक्टरों ने आनन-फानन में पक्का प्लास्टर बांधा और फटाफट छुट्टी कर दी। असहनीय दर्द के बीच जब अंश के नाखून नीले और हाथ का रंग काला पड़ने लगा तो उसके हैरान पिता ने फिर से हमीदिया की शरण ली। पता चला अंश को तो गैंगरीन हो गया है। अच्छा खासा अंश अब विकलांग है। उसका बायां हाथ काट देने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं था।..इसी हमीदिया के शिशु वार्ड में भर्ती नवजात आरूषि इन्क्यूबेटर में सिकाई के दौरान बुरी तरह से जलकर जख्मी हो गई।.. गंजबासौदा के सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने बोबेरॉन की जगह पेंसिलिन का इंजेक्शन देकर रामस्वरूप से उसकी जिंदगी छीन ली। धरती के इन कलयुगी भगवानों की ऐसी जानलेवा करतूतों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। आए दिन ऐसी सुर्खियां अब सरेआम हैं। सवाल यह है कि क्या सरकारी क्षेत्र की इस हद तक अराजक चिकित्सकीय कुव्यवस्था का मर्ज अब वाकई लाइलाज हो चुका है? सच तो यह है कि राज्य में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का अधोसंरचना विकास अभी भी बाधित है। मानव विकास प्रतिवेदन की मानें तो राज्य में 26 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अभाव है। गंभीर स्वास्थ्य संकेतांकों के बीच यह अचरज की बात नहीं कि मध्यप्रदेश सरकार की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है। स्वास्थ्य नीति के नाम पर सरकार के पास 9 साल पुराना डेनमार्क की कंपनी डेनिडा का एक ड्राफ्ट है मगर, यह प्रारूप भी खराब स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकार के बजाय नागरिकों को जिम्मेदार मानता है। यह प्रारूप स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की भी सिफारिश करता है। अलबत्ता बाजारू दबाव के चलते राज्य की अपनी दवा नीति जरूर है। उधर,शासकीय चिकित्सा व्यवस्था के समनांतर निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का एक ऐसा बड़ा बाजार खड़ा हो चुका है, जो सरकारी क्षेत्र के डाक्टरों को हमेशा लुभाता रहा है। कौन नहीं जानता के पैसे के लोभ में सरकारी क्षेत्र से निजी क्षेत्र की चिकित्सा व्यवस्था को वॉकओवर मिलता है। यही वजह है कि सरकारी अस्पताल चिकित्सा और सुविधाओं के मामले में महज नाम के रह गए हैं। निजी क्षेत्र की चिकित्सा सेवाएं सरकारी डाक्टरों के लिए धन के असंख्य स्त्रोत खोलती हैं। मनमानी फीस,महंगी जांचें और जैनेरिक दवाओं को खपाने में बतौर कमीशन मनमानी मुनाफे ने चिकित्सकों के भाव आसमान पर पहुंचा दिए हैं। क्या, हमीदिया प्रदेश के किसी भी सरकारी अस्पताल के स्टाफ पर सरकारी नियंत्रण जैसा कोई दबाव नहीं है। पैसे के लिए ऊपर से नीचे तक गठजोड़ काम करता है। नैतिकता और संवेदनशीलता की कोई गुंजाइश नहीं है। कहने को तो तमाम कानून कायदे हैं, लेकिन सब के सब बेमानी हैं। जांच के नाम पर लीपापोती,लामबंदी और सांठगांठ है। प्रायवेट प्रैक्टिस पर पाबंदी हो या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं देने की वैधानिक बाध्यता या फिर चिकित्सा महाविद्यालयों में जूनियर डाक्टरों की एलानिया गुंडागर्दी। तलख मिजाजी और बदसलूकी के लिए मशहूर सरकारी डॉक्टरों के पास पेसेंट और उसके अटेंडेंट के लिए सिर्फ एक ही जुमला होता है-डाक्टर तुम हो,या मैं..
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