गुरुवार, 9 जून 2011

राजनीति की मैली गंगा


राम की मैली गंगा। असल में आखिर, किसकी गंगा? स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की या फिर कथित धुर धर्माध भाजपा की..अब गंगा पर हक हथियाने की होड़ तकरीबन तय है। घोर कलयुग का कमाल देखिए , पापियों के पाप धोने से पतित हुई पुण्य सलिला गंगा को पवित्रता की गारंटी भी अब गंदली राजनीति ही देगी। गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारने के लिए कभी भागीरथ ने भी इतना जोर न मारा होगा,जितना जोर अब गंगा के लिए यूपी के आसन्न चुनावी दंगल में लगने वाला है। उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव से ठीक थोड़ा पहले सियासी तौर पर निहत्थी भाजपा ने वहां जमीन खोजती कांग्रेस के नहले पर जिस तरह से दहला मारा है,इससे फिलवक्त यही संकेत मिलते हैं। कहना न होगा कि कल तक एक अदद मुद्दे की भूखी भाजपा अब कांग्रेस के एक बड़े सुनियोजित चुनावी हथियार को हथियाने में सरसरी तौर पर कामयाब रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ यह वही कांग्रेस है, जिसने नवंबर 2008 में सात राज्यों के साथ-साथ लोकसभा के प्रस्तावित आम चुनावों के दौरान गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देने के मसले को कैश कराने की रणनीति अपनाई थी। तब सत्ताधारी कांग्रेस ने गंगा की आड़ में एक तीर से तीन निशाने साधे थे। बहुसंख्यक हिंदू वोट बैंक का दिल जीतने, हिंदूवादी नेताओं का जनाधार बढ़ाने में मददगार गंगा के आंदोलनकारी समाजसेवी संगठनों का दम तोड़ने और यूपी की सीएम मायावती की बहुउद्देश्यीय गंगा एक्सप्रेस की हवा निकालने में यह कथित धर्मनिरपेक्ष दल कितना कामयाब रहा, यह तय कर पाना तो मुमकिन नहीं । मगर इतना तय है कि सरकारी वायदे के तीन वर्ष बाद भी केंद्रीय गंगा नदी प्राधिकरण का अपना कोई वजूद नही है। देश ने इसकी कभी कोई गतिविधि नहीं देखी है। दरअसल वोट की राजनीति के लिए देश के किसी भी सियासीदल का यही असली चरित्र है। गंगा पर राजनीति की एक और रणनीति एक बार फिर अपनी भूमिका में है। लाखों लाख आस्थाओं की प्रतीक पवित्र नदी गंगा सदियों से भारत के मान सम्मान और स्वाभिमान का सवाल रही है, मगर बावजूद इसके अगर 1985 में तबके प्रधानमंत्री राजीव गांधी के गंगा एक्शन प्लान को बतौर अपवाद छोड़ दें तो इसके बाद गंगा की अस्मिता और अस्तिव के लिए फिर कभी कोई सरकारी सक्रियता नहीं दिखी । अलबत्ता इसके सियासीकरण की कोशिशें प्राय: होती रही हैं। वस्तुत:गंगा का सतही सियासत से कोई नाता नहीं है। कोई नदी यूं ही मां नहीं हो जाती! इसके लिए अगाध समर्पण और निर्बाध समग्र सेवा भाव चाहिए। दल-दिल बांटते हैं। गंगा इंसानी सीमाओं को तोड़कर अंतरदेशीय हो जाती है। वह सिर्फ भारत के हर 10 में से 4 लोगों का पोषण नहीं करती अपितु दुनिया के 1/8 आबादी के पालन की परवाह भी उसकी अपनी है, लेकिन देश के सियासतदारों की गंगा के प्रति नीयत कभी ठीक नहीं रही। सरकारी नीतियां बताती हैं कि इस देश में गंगा की अब यही नियति है। कोई गंगा से भी तो पूंछे कि आखिर वह चाहती क्या है? वर्ना ,अगर लोग यही चाहते हैं कि पतितों की इस धरती से अब गंगा को विदा हो जाना चाहिए तो गंगा को भी इससे कोई गुरेज नही है। एक अध्ययन की मानें तो डेढ़ दशक के अंदर गंगा सूख जाएगी। गंगा शायद भी रहे ,लेकिन गंगा वस्तुत: गंगा नहीं रह जाएगी..

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