सोमवार, 6 जून 2011

हिंसक सरकार से सिर्फ एक सवाल




पूरा देश दंग है। गांधी के देश में कथित गांधीवादी सरकार के हाथों एक सत्याग्रह की ऐसी त्रसदी। कोई जनतांत्रिक सत्ता इतनी निर्मम और निरंकुश भी हो सकती है,सहसा यकीन नहीं होता। हिंसक होती भीड़ तो देश ने कई मर्तबा देखी है,लेकिन बेवजह यूं हिंसक हुई सरकार के बर्बर व्यवहार से देश पहली बार दो-चार हुआ है। क्या किसी भी सरकार को यूं कानून हाथ में लेने का अधिकार है? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि शांतिप्रिय सत्याग्रह कर रहे बाबा और उनके समर्थकों पर सीधे दमन की आक्रामक कार्रवाई के पीछे सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी? असलियत तो यह है कि सरकार के पास भी इस सवाल का कोई तार्किक जवाब नहीं है। जवाब में सराकर के बड़बोले सिर्फ कुतर्क कर रहे हैं। बचाव में उनके पास महज बेशर्मी भरे गैर जिम्मेदाराना जवाब ही हो सकते हैं। असल में गजब के माइंड और अद्भुत ‘मॉस मैनेजमेंट’ देखकर सरकार का संयम टूट गया। बाबा के समर्थन में भीड़ देखकर भीतर से भयभीत यूपीए सरकार स्वयं में ही चकरा गई। सरकार के सलाहकारों को लगा कि नागरिक आंदोलन की आड़ में उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अपना जनाधार मजबूत कर रहें हैं। कांग्रेस के नेतृत्तववाली यूपीए सरकार को इस भीड़ के आगे भाजपा और पीछे से आरएसएस के भूत क्या दिखे कि वह चोरों के माफिक देर रात सीधे लाठी,गोली और बंदूक पर उतर आई। सरकार चाहती तो फौरी तौर पर सीधे(नाटकीय नहीं,जैसा उसने किया)समझौते करके बाबा के दबाव की हवा निकाल सकती थी। नासमझी में ही सही अण्णा हजारे की हजार समझाइश के बाद भी बाबा ने स्वयं सरकार के लिए सारे रास्ते खोल कर रखे थे, लेकिन सरकार ने अण्णा की तरह बाबा रामदेव को मुद्दों से भटकाने के बजाय भड़काने की रणनीति अपनाई। बाबा की तमाम कमजोर कड़ियों से इंकार नहीं लेकिन, बौखलाई सरकार ने बर्बर फैसला लेने से पहले इस बात की भी फिक्र नहीं कि उसके इस कदम से देश में हिंसा भड़क सकती है। आखिर संविधान का कौन सा प्रावधान किसी भी सरकार को देश में आग लगाने का अधिकार देता है? कहना न होगा कि रामदेव को लेकर सियासत की सिर्फ एक ही फिर्क रही है कि वह राजनीति क्यों कर रहे हैं? क्या इस लोकतांत्रिक देश में किसी अराजनैतिक भारतीय नागरिक को कानून के दायरे में रह कर राष्ट्रहित से जुड़े सामाजिक सरोकार के राजनैतिक सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है? क्या सारा ठेका सफेदपोश सियासतदारों की ही थाती है? बाबा हों या अण्णा आज अगर इन दोनों को भारी समर्थन मिल रहा है तो इसका सिर्फ एक ही कारण है कि राजनीति से आमआदमी का भरोसा सियासतदारों की ऐसी ही हरकतों के कारण उठता जा रहा है। सत्याग्रह पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी भूमिका आदतन बहुत आशाजनक नहीं रही है। खासकर ऐसे मौकों पर अक्सर मसालों की भूखी मीडिया कभी भी किसी के भी बयान को जिस तरह से कंट्रोवर्सी में बदलती रही है,इससे वह छल-कपट की राजनीति में माहिर सियासत के तमाम बड़बोलों का बेवजह पोषण तो करती ही है,इससे वह किसी और का नहीं अपितु अपने ही भरोसे का भी खून करती है।

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