जुलाई के दूसरे हफ्ते में ही संसद का मानसून सत्र बुलाने की प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की मंशा पर फौरी तौर पर सरकार ने भले ही पानी फेर दिया हो लेकिन इससे किसी की भी मुश्किलें आसान होने वाली नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि अकेले मजबूत जन लोकपाल बिल के मसौदे पर असहमति गंभीर चुनौती नहीं है। एक मिनट के लिए अगर उभय पक्षों के बीच सहमति की कोई जादुई राह निकल भी आती है, तो इसके कानूनी पहलू और सियासी बाधाएं इतनी जटिल हैं कि उनसे पार पाना फिलहाल यूपीए जैसी गठबंधन सरकार के लिए संभव नहीं है,क्योंकि इस पर अमल से संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित होगा। यानि लगभग डेढ़ दर्जन अनुच्छेद संशोधित करने होंगे। एक संपूर्ण स्वायत्त और शक्तिशाली जनलोकपाल के लिए सिविल सोसायटी की ओर से सरकार को 40 बिंदुओं का मसौदा सौंपा गया था, लेकिन सरकार इनमें से महज 11 पर सहमत है। सरकार लोकपाल को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं रखना चाहती है। सरकार चाहती है कि प्रस्तावित 10 सदस्यीय लोकपाल में सर्वाधिक 7 सदस्य राजनैतिक पृष्ठीभूमि से हों। लोकपाल को पदच्युत करने के मामले में भी सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार भी अपने पास ही सुरक्षित रखना चाहती है। सरकारी मंशा से साफ है कि वह देश में लोकपाल को राज्यों के लोकायुक्त की हैसियत से अलग नहीं कर पा रही है। असहमति के मुद्दों पर कैबिनेट हो या फिर सर्वदलीय सुझाव इस कवायद से भी कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है। वस्तुत: सरकार की तमाम कोशिशें अंतत: इन सबों के ही हितों का पोषण करती हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर सरकार ने बीच का जो रास्ता निकालने की कोशिश की है, उससे लगता नहीं कि बात आगे बढ़ेगी। पीएम को लोकपाल के दायरे में लाने की बात कोई नई नहीं है। जैसे आज यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पदेन स्वयं को लोकपाल के दायरे में लाने से सहमत हैं, वैसे ही पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और इससे पहले जनता सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। तीन अलग-अलग प्रधानमंत्रियों की इस मामले में अद्भुत एकरूपता का दूसरा पहलू यह भी है कि कभी पीएम को लोकपाल के दायरे में लाने से सहमत रहे यूपीए सरकार के दूसरे नंबर के प्रभावशाली केद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी आज इस बात से असहमत हैं। यह अचरज एकदम वैसा ही जैसे सिविल सोसायटी के सूत्रधारों में से एक शांति भूषण 1977 की जनता सरकार में कानून मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में नहीं लाने के पक्षधरों का नेतृत्व कर रहे थे। आशय यह है कि प्रधानमंत्री की सहमति और सेनापतियों की असहमति के महाशोर के बीच असल मुद्दा गायब करने की कुटिल सियासी चाल कोई नई बात नहीं है। यह इत्तफाक नहीं कि संसद के भीतर सांसदों के आचरण और अफसरशाही को भी लोकपाल के दायरे में लाने की बात उस दौर में चल रही है, जब 90 से ज्यादा सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। तकरीबन 180 तो ऐसे सांसद हैं जो किसी न किसी रूप में आपराधिक चारित्र रखते हैं। इतना ही नहीं 375 से ज्यादा आईएएस और 425 से ज्यादा आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच चल रही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें