देश में भारी भ्रष्टाचार के सवाल पर पहले मशहूर समाजसेवी अण्णा हजारे और अब नामवर योगगुरू बाबा रामदेव..स्वछंद सियासी आचरण से अराजक हो रहे बहुमत को आज बेशक एक लोक नायक की तलाश है।
बेसब्री इस कदर है कि कोई अण्णा हजारे को छोटे गांधी के रूप में देखता है, तो किसी को बाबा रामदेव में दूसरे गांधी के दर्शन होते हैं। सवाल यह है कि इन दोनों में से बेहतर विकल्प क्या हो सकता है? अभी न सही लेकिन कल यह सबसे बड़ा सवाल सामने आकर चट्टान की तरह खड़ा होने वाला है। कल तक विपरीत धुव्र रहे दोनों आज अगर साथ-साथ हैं ,तो यह सियासी दगाबाजी की देन है। वर्ना,अण्णा हों या बाबा कुछ अपावादों को छोड़ दें तो दोनों में दूर-दूर तक कोई खास समानता नहीं दिखती है। बात बहुत पुरानी नहीं है,जब जतंर-मंतर से चला अण्णा का जादू पूरे देश के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था तब अनशन के मंच पर बाबा रामदेव के लिए बमुश्किल जगह बनानी पड़ रही थी और आज वही अण्णा अंतत: बाबा की शरण में शीर्षासन लगाकर बैठे हैं। बाबा के मुकाबले अण्णा में यही बुनियादी फर्क है। अण्णा के पास अगर कुछ पाने को नहीं है तो कुछ खोने को भी नहीं है। उनका कोई फाइनेंसर नहीं है। उनके पास आत्मबल और जनशक्ति है। वह जेट पर नहीं उड़ते। उनके पांडाल भी एयरकूल्ड नहीं हैं । इसके विपरीत बाबा रामदेव के अब सिर्फ भगवाधारी स्वामी नहीं हैं। वह एक बहुत बड़े व्यावसायिक साम्राज्य के स्वामी भी हैं। जहां सत्ता का दबाव चलता है। अप्रकट रूप से बाबा के पीछे उनके उन पूंजी निवेशकों का भी दबाव हो सकता है, जिन्होंने बाबा के वैश्विीकरण में बड़ी भूमिका निभाई है। अण्णा समग्र भ्रष्टाचार को फोकस करते हैं मगर बाबा का ध्यान अकेले कालेधन पर केंद्रित है। दोनों के एजेंडे का यह एक बड़ा फर्क है। इसके अपने मंतव्य और निहितार्थ हैं। बाबा आगे चलकर किस करवट बैठेंगे,अभी कुछ भी कह पाना जल्दबाजी होगी। इस बीच बाबा जिस तरह से जल्दी-जल्दी पलटें हैं, यह शक और भी गहराया है। अगर बाबा रामदेव की अपनी व्यावसायिक मजबूरियां हैं तो उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए खड़े हुए इस देशव्यापी आंदोलन की राह से हट जाना चाहिए। योगगुरू के रूप में बाबा रामदेव के खुबसूरत चेहरा हो सकते हैं लेकिन वह सिसायत के कोई खांटी खिलाड़ी नहीं हैं। सिविल सोसायटी के एक सर्वमान्य प्रतिनिधि बनकर उभरे अण्णा हजारे एंड कंपनी की अगर आज मनमोहनी सरकार ने यह दरुगति कर दी है तो इसकी एक बड़ी वजह अण्णा में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव ही है। अण्णा अगर बाबा की शरण में हैं तो सिर्फ इसलिए कि वह सरकारी चालों को समझ चुके हैं। लोकपाल के सवाल पर सरकार की रणनीति शुरू से ही साफ थी। अण्णा अनशन के चौथे ही दिन सरकार ने जिस तरह से घुटने टेके थे दाल में काले की आशंका उभर आई थी। रामदेव के मामले में सरकार एक बार फिर से वैसी ही नाटकीय भूमिका में है। एयरपोर्ट पर बाबा की आत्मिक अगवानी के लिए पहुंचे आला दज्रे के केंद्रीय मंत्रियों की मंशा बताती है कि अब दाल में कु छ नहीं बहुत कुछ काला है। क्या बाबा रामदेव अण्णा की इस हालत से सबक लेंगे?
बेसब्री इस कदर है कि कोई अण्णा हजारे को छोटे गांधी के रूप में देखता है, तो किसी को बाबा रामदेव में दूसरे गांधी के दर्शन होते हैं। सवाल यह है कि इन दोनों में से बेहतर विकल्प क्या हो सकता है? अभी न सही लेकिन कल यह सबसे बड़ा सवाल सामने आकर चट्टान की तरह खड़ा होने वाला है। कल तक विपरीत धुव्र रहे दोनों आज अगर साथ-साथ हैं ,तो यह सियासी दगाबाजी की देन है। वर्ना,अण्णा हों या बाबा कुछ अपावादों को छोड़ दें तो दोनों में दूर-दूर तक कोई खास समानता नहीं दिखती है। बात बहुत पुरानी नहीं है,जब जतंर-मंतर से चला अण्णा का जादू पूरे देश के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था तब अनशन के मंच पर बाबा रामदेव के लिए बमुश्किल जगह बनानी पड़ रही थी और आज वही अण्णा अंतत: बाबा की शरण में शीर्षासन लगाकर बैठे हैं। बाबा के मुकाबले अण्णा में यही बुनियादी फर्क है। अण्णा के पास अगर कुछ पाने को नहीं है तो कुछ खोने को भी नहीं है। उनका कोई फाइनेंसर नहीं है। उनके पास आत्मबल और जनशक्ति है। वह जेट पर नहीं उड़ते। उनके पांडाल भी एयरकूल्ड नहीं हैं । इसके विपरीत बाबा रामदेव के अब सिर्फ भगवाधारी स्वामी नहीं हैं। वह एक बहुत बड़े व्यावसायिक साम्राज्य के स्वामी भी हैं। जहां सत्ता का दबाव चलता है। अप्रकट रूप से बाबा के पीछे उनके उन पूंजी निवेशकों का भी दबाव हो सकता है, जिन्होंने बाबा के वैश्विीकरण में बड़ी भूमिका निभाई है। अण्णा समग्र भ्रष्टाचार को फोकस करते हैं मगर बाबा का ध्यान अकेले कालेधन पर केंद्रित है। दोनों के एजेंडे का यह एक बड़ा फर्क है। इसके अपने मंतव्य और निहितार्थ हैं। बाबा आगे चलकर किस करवट बैठेंगे,अभी कुछ भी कह पाना जल्दबाजी होगी। इस बीच बाबा जिस तरह से जल्दी-जल्दी पलटें हैं, यह शक और भी गहराया है। अगर बाबा रामदेव की अपनी व्यावसायिक मजबूरियां हैं तो उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए खड़े हुए इस देशव्यापी आंदोलन की राह से हट जाना चाहिए। योगगुरू के रूप में बाबा रामदेव के खुबसूरत चेहरा हो सकते हैं लेकिन वह सिसायत के कोई खांटी खिलाड़ी नहीं हैं। सिविल सोसायटी के एक सर्वमान्य प्रतिनिधि बनकर उभरे अण्णा हजारे एंड कंपनी की अगर आज मनमोहनी सरकार ने यह दरुगति कर दी है तो इसकी एक बड़ी वजह अण्णा में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव ही है। अण्णा अगर बाबा की शरण में हैं तो सिर्फ इसलिए कि वह सरकारी चालों को समझ चुके हैं। लोकपाल के सवाल पर सरकार की रणनीति शुरू से ही साफ थी। अण्णा अनशन के चौथे ही दिन सरकार ने जिस तरह से घुटने टेके थे दाल में काले की आशंका उभर आई थी। रामदेव के मामले में सरकार एक बार फिर से वैसी ही नाटकीय भूमिका में है। एयरपोर्ट पर बाबा की आत्मिक अगवानी के लिए पहुंचे आला दज्रे के केंद्रीय मंत्रियों की मंशा बताती है कि अब दाल में कु छ नहीं बहुत कुछ काला है। क्या बाबा रामदेव अण्णा की इस हालत से सबक लेंगे?
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