साधना से संकल्प कैसे फलीभूत होते हैं? राजा भगीरथ के तपोबल से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की एक पौराणिक कथा कमोबेश ऐसी ही कहानी है। अहंकार से भरी वेगवती गंगा को आखिर संभाले तो संभाले कौन? प्रचंड वेग को संभालने की शक्ति शिव के सिवाय किसी और में नहीं थी। अब, अगर सात साल के कठिन सरकारी श्रम से अटल-उमा संकल्प को उपकृत करती नर्मदा सत्तर किलोमीटर का लंबा सफर तय कर राजधानी पहुंची है ,तो उसकी एक-एक बूंद को सहेजने का सवाल सबसे बड़ी चुनौती है। तब, गंगा को संभालने के लिए शिव-शक्ति सामने थी और अब नर्मदा को सहेजने का सारा दारोमदार शिव-सत्ता पर है। यह भी एक इत्तफाक ही है कि बजरिए उमा जहां गंगा भाजपा का नया सियासी मुद्दा है । वहीं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए प्रदूषण से पस्त ,पतित पावनी नर्मदा एक बड़ी चुनौती है। प्रदेश के 16 जिलों में सौ से भी ज्यादा सरकारी नालों की बदौलत नर्मदा का पावित्र जल आज पीना और नहाना तो दूर आचमन के लायक भी नहीं बचा है। इससे पहले फौरी तौर पर सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि राजधानी में नर्मदा जल को सरकारी अमला आखिर कैसे संभाले और सहेजेगा? तकरीबन 339 सौ करोड़ के नर्मदा प्रोजेक्ट की कामयाबी सिर्फ इस बात पर निर्भर है कि पानी का ज्यादा से अपव्यय रोका जाए। वर्ना, करोड़ों के कोलार प्रोजेक्ट की नाकामी की कहानी सब के सामने है। सरकारी आंकड़ों पर ही यकीन करें तो राजधानी की 285 वर्ग किलोमीटर की नगर सीमा परिधि में 6 हजार से भी ज्यादा ऐसे छोटे-बड़े लीकेज हैं ,जिनसे रोजाना 6 करोड़ लीटर पीने लायक पानी बेकार में बह जाता है। ऐसे ही एक अनुमान के मुताबिक इन लीकेज के मेंटीनेंस में सालाना डेढ़ करोड़ रूपए खर्च किए जाते हैं। राजधानी के जिस पुराने भोपाल इलाके में भीषण जलसंकट है, उस क्षेत्र में पानी कीआपूर्ति का नेटवर्क भरोसे के काबिल नहीं है। पाइप लाइनें सौ साल पुरानी हैं। राजधानी को रोज 362 एमएलडी पानी की आवश्यकता होती है। सब जानते हैं कि मांग के मुकाबले उपलब्धता एवं आपूर्ति में भारी अंतर वस्तुत: जल संरक्षण और उसके वितरण में कुप्रबंधन का नतीजा है। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि असलियत जब यह है तो ऐसे में नर्मदा प्रोजेक्ट से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है? एक और सरकारी दावे के अनुसार अकेले नर्मदा प्रोजेक्ट से प्रतिदिन185 एमएलडी जलापूर्ति संभव है, लेकिन आशंका है कि कुल आपूर्ति की तकरीबन 25 फीसदी जलराशि सप्लाई की पुख्ता व्यवस्था नहीं होने के कारण बेकार चली जाएगी। हालांकि, नर्मदा प्रोजेक्ट के तहत ही पुराने भोपाल में 415 करोड़ की शुरूआती लागत से 23 सौ किलोमीटर लंबी पाइप नई पाइप बिछाने की भी योजना है, लेकिन यह प्लान फिलहाल दूर की कौड़ी है। इसके अमल में कम से कम 6 साल लगेंगे। जाहिर है, नर्मदा जल का लाभ फिलहाल जरूरतमंदों को मिलने के उम्मीद कम ही है। राजधानी में पानी का असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। कहीं पानी ही पानी है तो कहीं बूंद-बूंद जल के लिए लोग मोहताज हैं। अब देखना यह है कि राम-रोटी,गौ और अब गंगा में जनाधार ढूंढती भाजपा की सत्ताधारी सरकार आखिर नर्मदा उद्धार के लिए क्या कदम उठाती है?
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