सोमवार, 20 जून 2011

भगवा भूत और शह-मात की सियासत


हिंदू आतंकवाद से जुड़ी सात बहुचर्चित वारदातों की जांच का जिम्मा राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने के केंद्रीय गृह मंत्रलय के एलान के साथ ही देश में सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं। शह-मात के इस सियासी खेल में कानून की भूमिका पर फिलहाल केंद्रीय विधि मंत्रलय विचार कर रहा है। असल में यूपीए सरकार अब एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश में है। एक तो यह कि वह इसी बहाने मध्यप्रदेश और गुजरात की भाजपा सरकारों को कटघरे में लाने की कोशिश कर रही है और दूसरा यह कि इसी आड़ में वह प्रस्तावित सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा रोकथाम विधेयक के लिए जमीन बना रही है। सवाल यह है कि आज अगर सहिष्णु भारतीय समाज को भगवा आतंक का भूत भयभीत कर रहा है तो इसके लिए आखिर दोषी कौन है? वस्तुत: हर क्रिया की प्रतिक्रिया स्वभाविक है। चाहे वह मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ हिंदू चरमपंथ हो या फिर हिंदू अतिवाद के विरूद्ध मुस्लिम कठमुल्लापन। आज अगर ये हालात बने हैं तो इसके पीछे वोट के लिए तुष्टीकरण एक बड़ी वजह रही है। यह सच है कि देश में हाल ही में सामने आई कुछ आतंकी गतिविधियों में कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों का हाथ रहा है , लेकिन यह भी सच है कि यह सब सहसा नहीं हुआ है। इसका क्रमिक विकास रजनैतिक मंच पर सरेआम हुआ है मगर बावजूद इसके धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के बाद भी आज अगर इस धर्मनिरपेक्ष देश में मुस्लिम, खालिस इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान के मुकाबले ज्यादा सम्मानित,समृद्ध और सुरक्षित हैं तो यह सब हिंदू जीवन दर्शन में निहित सहिष्णुता ,सह अस्तित्व और सर्वधर्म समभाव का ही परिणाम है। कहना न होगा कि राष्ट्रीय एकीकरण की इस विशिष्टतता में आजादी के आंदोलन से लेकर आजाद भारत के पुनर्निमाण तक भारतीय मुस्लिमों की राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण योगदान रहा है,लेकिन विडबंना देखिए कि स्वार्थ से वशीभूत सियासतदारों ने हमेशा सांप्रदायिक सदभाव को धार्मिक नजरिए से देखने की ऐतिहासिक भूलें की हैं। वर्ना कोई भी समाज समग्र रूप से आतंक का पोषण नहीं कर सकता। यह उसका स्वभाव नहीं। सहअस्तिव समाज का मनोवैज्ञानिक स्वभाव और सामाजिकता उसकी व्यावहारिक विवशता होती है। यदि समाज के किसी भी वर्ग में आतंक का पोषण होता है और वह उसका फौरन प्रतिकार नहीं करता है तो उसे इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है आज अगर दुनिया के तमाम देश मुस्लिम आतंकवाद से दहल रहे हैं तो इसके पीछे समाज की खामोशी एक बड़ा कारण है। इसी खामोशी के मौन समर्थन से आतंकवाद को शक्ति मिली है। अब वक्त आ गया है,जब भारतीय समाज अपनी जिम्मेदारी समङो। ऐतिहासिक भूलों से सबक ले और सियासतदारों को ऐसे अवसर न पैदा करने दे। वोटों के भूखे सियासतदार राजनैतिक रोटियों सेंकने के लिए अक्सर ऐसे अवसर पैदा करने की कुटिल कोशिशें करते हैं। सांप्रदायिकता का सवाल हो या फिर अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का नाजुक मसला ये ऐसे ही अवसर हैं जो कभी हिंदू तो कभी मुस्लिम आतंकवाद की राह आसान करते हैं। बेशक, वक्त रहते ऐसी साजिशों का सामाजिक शमन जरूरी है और पोषण आत्मघाती।

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