बुधवार, 15 जून 2011

सरकार की लाड़ली पेट्रोलियम कंपनियां



मनमोहन की अर्थशास्त्री सरकार को चाणक्य के अर्थशास्त्र की कम से कम यह उक्ति तो अंगीकृत करनी ही चाहिए कि राज्य को जनता से कर वैसे ही लेना चाहिए जैसे फूल को बगैर क्षति पहुंचाए मधुमक्खी रसपान करती है,मगर सरकारें हैं कि कर वसूली में आम आदमी का बड़ी ही क्रूरता के साथ खून चूसती हैं। पेट्रोल,डीजल,रसोई गैस और केरोसिन की कीमतों में सबसे ज्यादा हिस्सा टैक्स का होता है। केंद्र हो या राज्य सरकारें बैठे बैठाए करोड़ों का राजस्व कमाती हैं। केन्द्र सरकार साढ़े 7 फीसदी कस्टम ड्यूटी समेत प्रतिलीटर पर 7 प्रकार के कर माध्यमों से 29 रुपए वसूलती हैं,उधर पेट्रो कीमतों की वृद्धि पर प्राय: केंद्र को कोसने वाली राज्य सरकारें भी वैट ,सरचार्ज, सेस और इंट्री टैक्स लेती हैं। पेट्रोल पर देश का सर्वाधिक 28.75 फीसदी वैट मध्यप्रदेश में वसूला जाता है। मध्य प्रदेश सरकार इसी मद में एक फीसदी इंट्री टैक्स भी लेती है। अर्थशास्त्री कहते हैं,इन करों पर सरकार की जरा सी राहत भी आम आदमी के लिए बड़े काम की हो सकती है, लेकिन इसके विपरीत सरकारें जब-तब क्रूड ऑयल की आसमान चूमती कीमतों का खौफ खड़ा कर अपने खजाने भरने के रास्ते बनाती रहती हैं। वस्तुस्थिति तो यह है कि कर की सरकारी नीतियां स्वयं में स्वार्थपूर्ण हैं। जिसकी वजह से पेट्रोलियम पदार्थो के खुदरा मूल्यों की कीमतें बढ़ती हैं। पेट्रोलियम उत्पादों को बाजार के हवाले करने की मजबूरी वास्तव में सिवाय विधवा विलाप के कुछ और नहीं है,अगर मूल्य सरकारी नियंत्रण से बाहर ही हैं, तो पिछले माह मई में पेट्रोल के मूल्यों में अभूतपूर्व इजाफा करने वाली सरकार पांच राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के परिणामों का पूरे 6 माह तक इंतजार कैसे कर पाई? सवाल यह भी है कि नई दिल्ली के मुकाबले पाकिस्तान जैसे दरिद्र देश की राजधानी इस्लामाबाद में प्रति लीटर पेट्रोल 50 फीसदी सस्ता क्यों है? कोलंबो और ढाका में प्रति लीटर पर 17 प्रतिशत । चीन के बीजिंग और अमेरिका के वाशिंगटन की तुलना में नईदिल्ली का पेट्रोल 36 फीसदी मंहगा क्यों है? अगर भूटान के थिंपू और नेपाल के काठमांडू में दाम आसमान पर हैं तो इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि इन दोनों देशों का निर्यात नियंत्रण भारतीय तेल कंपनियों के हाथ में है। यह कहना ठीक नहीं कि अंतराष्ट्रीय बाजार की बदौलत सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां 450 करोड़ के घाटे पर हैं। यह सही है कि पिछले दो वर्षो के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य आसमान पर थे, लेकिन यह भी सही है कि इसी दौरान ओएनजीसी को 16041 करोड़, गैल को 2814करोड़, इंडियन ऑयल को 2570 करोड़ और ऑयल इंडिया को 2166 करोड़ का लाभ हुआ। विश्व बाजार में पिछले साल जब तेल की कीमतें गिरीं तो इसका लाभ देश के आम उपभोक्ताओं को क्यों नहीं मिला? सरकार को यह समझना चाहिए कि 50 करोड़ भारतीयों की जिंदगी पेट्रोल पर चलती है। अमेरिका के बाद दुनिया में यह दूसरी सबसे बड़ी आबादी है ,जो इसी दम पर रोज कमाती -खाती है। पेट्रोलियम पदार्थो में दर वृद्धि की मार भी इसी बेकसूर आबादी पर पड़ती है। चूंकि डीजल-पेट्रोल वाहन ईंधन हैं ,जो सीधे देश की परिवहन और यातायात को प्रभावित कर अंतत: महंगाई बढ़ाते हैं।

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