द सेंटिनरी हिस्ट्री ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस का पांचवां खंड बाजार में है। इसके संपादक हैं, पुराने कांग्रेसियों में एक वित्त मंत्री दादा प्रणवमुखर्जी। इस पुस्तक को पार्टी के आधिकारिक इतिहास (वर्ष1964-84)की संज्ञा दी गई है। पुस्तक का लब्बोलुआब यह है कि तीस दशक पहले कांग्रेस के मटियामेट के लिए इंदिरा गांधी दोषी थीं और आज कांग्रेस के पिं्रस राहुल गांधी सब कुछ ठीकठाक करने के लिए इन्हीं चुनौतियों से जूझ रहे हैं । तो क्या कांग्रेस सगंठनात्मक सत्ता के शीर्षस्तर पर इस हद तक बदलाव के दौर से गुजर रही है? उधर,अगर रक्षा मंत्री एके एंटनी की मानें तो भ्रष्टाचार और कालेधन के बहाने ही सही देश पारदर्शिता कं्राति की राह पर है और इसे समझने के लिए ना तो कांग्रेस तैयार है और नाही उसकी यूपीए सरकार। सवाल यह भी है कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस आखिर किधर जा रही है? उसकी चाल,चहेरे और चरित्र में आए हालिया बदलाव बताते हैं कि अंदर ही अंदर फिलहाल सब कुछ शुभ नहीं है। कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र का आलम तो यह है कि यूपीए सरकार हो या फिर स्वयं कांग्रेस परस्पर बयानबाजियों में एकरूपता नहीं है। इनके निहितार्थ भी आपस में खासे गुत्थम गुत्था से लगते हैं। कल तक डील को आतुर जिन केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को बाबा रामदेव के सारे मुद्दे व्यापक जनहित में लग रहे थे ,उन्हीं के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह को बाबा अब ठग नजर आ रहे हैं। सत्याग्रह पर आश्रित जिस भ्रष्टाचार विरोधी नागरिक आंदोलन को सरकार ने इतनी बेरहमी से पीट कर जिस तरह की रेडलाइन दी है, उससे कांग्रेस को कौन सा राजनैतिक फायदा होने जा रहा है? तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के खिलाफअभूतपूर्व जनादेश के बाद भी सरकार में डीएमके की भागीदारी आखिर कांग्रेस की आज कौन सी सियासी मजबूरी ह ैइससे देश को आखिर क्या संदेश मिलता है। सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि अण्णा हजारे में अगर कांग्रेस को आरएसएस का मुखौटा दिखता है तो फिर कथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की सलामती के लिए सर्वधर्म प्रार्थना सभा के अलावा कोईऔर रास्ता नहीं बचता है। कांग्रेस के नेतृत्ववाली हिंसक हो चुकी यूपीए सरकार अगर यह सोच कर डंडे का जोर दिखा रही है कि राष्ट्रविरोधी सांप्रदायिक ताकतें भ्रष्टाचार की आड़ में देश को अस्थिर करना चाह रही हैं तो वह अप्रकट रूप से अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए ही जमीन तैयार कर रही है। देश जानता है कि कांग्रेस की यह भाषा नई नहीं है। सत्तर-अस्सी के दशक में भी कांग्रेस की यही जुबान थी। कहना न होगा कि यह भाषा कुछ-कुछ आपातकालीन है। सच तो यह है कि अंतत: अल्पसंख्यक बोट बैंक के गुणा-गणित में फंसी कांग्रेस के राष्ट्रीय सलाहकार उसे अपने उस मसौदे तक ले गए हैं, जो यूपीए सरकार को सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण विधेयक-2011 जैसे देश तोड़क कानून बनाने की प्रेरणा देता है। कांग्रेस के सलाहकार और रणनीतिकार कुछ भी कहें लेकिन हकीकत तो यह है कि अब वक्त आ गया है ,जब कांग्रेस अपने आंतरिक शुद्धीकरण के लिए आत्ममंथन करे। उसे पार्टी केअंदर और बाहर लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकपक्ष के जनहित की फिक्र करनी चाहिए । इसी में उसका भी हित है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें