शनिवार, 11 जून 2011

दब्बू भारत और दबंग अमेरिका


देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई में 26/11के आतंकी हमले का असली सूत्रधार तहव्वुर हुसैन राणा अगर संघीय अदालत से बाइज्जत बरी हो गया तो इसमें अकेले अमेरिका का क्या दोष? किसी और पर इल्जाम लगाने से पहले क्या हमें हमारा गिरेबान नहीं देखना चाहिए? बहुत संभव है कि अमेरिका ने इसी बहाने पाकिस्तान को खुश करने के रास्ते तलाशे हों, मगर सवाल है कि राणा को गुनहगार साबित करने के मामले में हमारी सुरक्षा और जांच एजेंसियां अब तक क्या कर रही हैं? पाकिस्तानी मूल के इस अपराधी के खिलाफ भारत सरकार के पास ऐसे क्या प्रमाण हैं कि राणा को मुंबई बम ब्लास्ट पर सजा हो सकती है? जवाब वही सीधा सा है-राष्ट्रीय जांच एजेंसी(एनआईए) हमले के डेढ़ साल बाद भी मामले की जांच कर रही है। याद करें,इस घटना में 138 भारतीयों समेत 4 अमेरिकन नागरिक मारे गए थे। गौरतलब है,मुंबई हमले में अमेरिका के सिर्फ चार नागरिक मारे जाते हैं और एक साल के अंदर वहां की संघीय जांच एजेंसी (एफबीआई)इस हमले के दोनों सूत्रधारों डेविड कोल मैन हेडली उर्फ दाउद सैय्यद गिलानी और उसके गुर्गे तहव्वुर हुसैन राणा को शिकागो शहर से गिरफ्तार कर लेती है। और, हम हैं कि इस गंभीर मामले में आज भी अपने ही घाव चाट कर जख्म के सूख जाने का इंतजार कर रहे हैं। कल तक हाफिज सईद और दाउद इब्राहिम के पाकिस्तान स्थित ठिकानों की हवाई तस्वीरें दिखा कर एबटाबाद जैसे अमेरिकन ऑपरेशन का दंभ भरने वाले हमारे सियासी शेख चिल्लियों के पास आज आखिर क्या जवाब है? केंद्र सरकार के आंतरिक सुरक्षा सचिव कहते हैं, मुंबई मामले में राणा की रिहाई से भारत को झटका नहीं लगा है। ऐसा कहना तो शर्मनाक कुटिलता की पराकाष्ठा है,अगर झटका नहीं लगा तो फिर ऐसी किसी सफाई की जरूरत क्या है? दुनिया जानती है कि अमेरिकन कोर्ट से राणा की रिहाई के कारण भारतीय आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक समर्थन की हवा निकल गई है । कहना न होगा कि इस दुर्भाग्य पूर्ण नौबत के लिए हमारी जांच और सुरक्षा एजेंसियां किसी भी हालत में कम जिम्मेदार नहीं हैं। आंतरिक सुरक्षा सचिव कुछ भी कहें लेकिन इस विफलता का ठीकरा अकेले अमेरिका के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। वस्तुस्थिति तो यह है कि हम इस मामले में ठीक से अपनी ही पैरवी कर पाने में सक्षम नहीं हैं। एक हकीकत यह भी है कि अहिंसा की आड़ में कायरता हमारा राष्ट्रीय धर्म बन गया है। हमारी केंद्रीय सत्ता शांतिप्रिय सत्याग्रह जैसे घरेलू मामलों में तो बर्बरता की हद तक हिंसक हो सकती है लेकिन वैश्विक मंच पर हम इतने भी आक्रामक नहीं हो सकते कि अपने पक्ष को तथ्यों और तर्को के साथ रख सकें। बेशक, अमेरिका की संघीय अदालत का यह फैसला गले नहीं उतरता। राणा के साथ लश्कर-ए-तयैबा के साथ उसके रिश्ते तो साबित हुए हैं लेकिन ये संबंध भारत नहीं डेनमार्क के मामले में हैं। यह फैसला एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि करता है कि अमेरिका कम से कम भारत के लिए भरोसेमंद नहीं है। एक बड़ा रक्षा सौदा खो देने के बाद भी अगर लादेन के खात्मे के साथ ही अमेरिका -भारत के इतना करीब आया था तो इसमें उसका ही स्वार्थ था। अमेरिका की पैंतरेबाजी अपनी जगह है। सवाल यह है कि हमारी हैसियत क्या है?

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