देश में महंगाई खतरनाक स्तर तक बेकाबू हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक की सबसे बड़ी फिर्क यही है कि महंगाई की मार अब अकेले खाद्य वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रही अपितु इसके जहर का असर अब विनिर्मित वस्तुओं तक पहुंच चुका है। आर्थिक लिहाज से यह एक अभूतपूर्व संकट है। इसके विपरीत यूपीए की अर्थशास्त्रीय सरकार की चिंता कुछ और ही है। दरअसल,भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों से घिरी केंद्रीय सत्ता को भी अर्थव्यवस्था पर अपनी राजनीतिक फिसलन का असर दिखने लगा है। विशेषज्ञों की मानें तो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक भी कोना ऐसा नहीं है ,जो राहत देने की उम्मीद बंधाता हो। मसलन-तमाम उपायों के बाद भी महंगाई दर दहाई अंकों पर बनी हुई है। अभी पेट्रोल- डीजल और रसोई गैस के दामों को नियंत्रण मुक्त करने की कवायद प्रस्तावित है। अगर सरकार साहस जुटा पाई तो परिवहन लागत बढ़ने से एक और आफत अंतत: आम आदमी पर ही टूटेगी। चालू माली साल में जीडीपी का ग्रोथ रेट 8 फीसदी से भी नीचे जा सकता है। सकल मुद्रा स्फीति की दर 9 प्रतिशत की रेड लाइन को पार कर चुकी है। औद्योगिक उत्पादन की विकास दर गिरकर महज 6.3 प्रतिशत रह गई है । सवा साल में रिजर्व बैंक की हालिया दसवीं कोशिश से रेपो दर 7.5 और रिवर्स रेपो दर 6.5 फीसदी के स्तर पर भले ही पहुंच गई हो, लेकिन इतना तय है कि अगले चार- छह महीनों में ब्याज दरों में कम से कम दो से तीन बार और चौथाई-चौथाई फीसदी की वृद्धि की आशंका है। बावजूद इसके महंगाई दर 6 फीसदी से नीचे नहीं आने वाली है। एक साल के दौरान होम लोन की दरों में 3 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। वैसे भी केंद्रीय बैंक ने मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा के दौरान इस आशय के साफ संकेत दिए हैं कि मंहगाई को काबू में लाने के लिए आगे भी ऐसे ही सख्त कदम उठाए जा सकते हैं। मंहगाई के सवाल पर भारतीय रिजर्व का एक ही रटा-रटाया जवाब है। बाजार में नकदी का प्रवाह जरूरत से ज्यादा है ,लिहाजा आवश्यक वस्तुओं की ज्यादा खपत हो रही है। यही महंगाई की मूल वजह है। बाजार में मौजूद नकदी को सोखे बिना संकट से निजात मुमकिन नहीं है। ऐसे में रेपो और रिवर्स रैपो जैसी नैतिक दरों में वृद्धि ही महज एक रास्ता है। असल में सुरसा की तरह मुंह फैला रही मंहगाई पर मुस्के लगाने के मामले में आरबीआई भी अंधेरे में तीर मार रही है। जमीनी हकीकत तो यह है कि हालात अब इस हद तक बेकाबू हैं कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा है। रिजर्व बैंक के तमाम पूर्वानुमान ध्वस्त हो चुके हैं। अर्थशास्त्रीय सरकार से लेकर उसके सलाहकार और रणनीतिकार चकराए हुए हैं। बकौल आरबीआई अगर महंगाई के लिए बाजार का मौद्रिक उफान दोषी है ,तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? ऋण लेकर घी पीने का चार्वाक दर्शन देने वाली मनमोहन की अर्थशास्त्रीय सरकार आज वैश्विक मंच पर भले ही मजबूत अर्थव्यवस्था का दम दिखा रही हो ,लेकिन घरेलू मामलों के आर्थिक मोर्चे पर वह मुंह दिखाने के लायक नहीं बची है। आज अगर आर्थिक उदारीकरण के दूरगामी दुष्परिणामों की वजह से बाजार में नकदी के बहाव के चलते महंगाई मांग और आपूर्ति के बीच गहरी खाईं बनकर बैठी है,तो गुनहगार कौन है?
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