प्यार के फेर में फंसी अपनी बहन की गला काट कर हत्या करने के बाद उसका भाई फरार हो जाता है। बूढ़ी विधवा मां दहाड़ें मार-मार कर रोती है। इस मां की आखिर क्या पीड़ा हो सकती है? बेटी की निर्मम हत्या या फिर उसका हत्यारा बेटा? सच तो यह है कि इनमें से दोनों नहीं। मां की फिक्र उसकी अपनी नितांत निजी है। मां को अब सिर्फ एक ही फिर्क खाए जा रही है कि उसका इकलौता बेटा ही उसके बुढ़ापे में लाठी का सहारा था। हाय,राम ! अब क्या होगा? विलाप करती मां बार-बार कहती है,रही बात बेटी की तो उसे अगर बेटा नहीं मारता तो मैं मार डालती..यूपी के सीतापुर में ऑनर किंलिंग का यह हालिया चेहरा इस मनोवैज्ञानिक सामाजिक समस्या पर कई संगीन सवाल उठाता है। ऐसे ही एक मामले में उत्तर प्रदेश के ही मुरादाबाद में अपनी दो सगी बेटियों को मौत के घाट उतारने वाली हत्यारिन मां को कोर्ट ने ताउम्र कैद की सजा सुनाई तो उसकी चेहरे पर हवाइयां हरगिज नहीं उड़ीं। इज्जत के लिए तीसरे हत्याकांड के मामले में एटा की एक स्पेशल कोर्ट ने जब दस हत्यारों को फांसी की सजा सुनाई तो कातिलों से कदाचित किंचित मात्र भी अपराध जैसा कोई बोध नहीं झलका। दरअसल, पछतावा विहीन यह बर्बर और आदिम मानसिकता बताती है कि कानून बहुत कुछ कर पाने की हालत में नहीं है। एक गैर सरकारी सव्रेक्षण कहता है कि झूठी आन-बान और शान के लिए देश में सालाना साढ़े 6 सौ से भी ज्यादा युवक-युवतियों को कुर्बान कर दिया जाता है। इन मामलों में वे आंकड़े भी शामिल हैं, जिनमें सगोत्रीय जोड़े होने के बाद भी उन्हें सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया क्योंकि उनकी शादी मां-बाप की मर्जी के खिलाफ थी। कल तक ऑनर किंलिग के सवाल को राज्यों का विषय बताने वाली यूपीए की केंद्र सरकार अब इस मामले में आनन-फानन में मानसूत्र के दौरान कानून लाने वाली है। सवाल यह है कि कानून आखिर क्या कर लेगा? ऐसे अपराधों पर दंड तय करने के तमाम पर्याप्त कानून पहले से मौजूद हैं। वस्तुत:यह विशुद्ध सामाजिक मनोवैज्ञानिक समस्या है। इसकी जड़ें संस्कृति और संस्कारों से परंपरागत तौर पर गहरे से जुड़ी हुई हैं। जाहिर है, इस संकट का निदान भी यहीं ,कहीं इसी के इर्द-गिर्द देखना होगा। यह कोई राजनैतिक विषय नहीं है, अलबत्ता अहम बात यह है कि ऑनर किंलिंग जैसे अपराधों की जड़ में बैठी खाप पंचायतें स्थानीय स्तर पर अपना जोरदार राजनैतिक रसूख रखती हैं। थोक वोट बैंक के प्रबंधन और उसके धुव्रीकरण में भी फतवों के माफिक इनके फरमान चलते हैं। समनांतर सत्ता का पर्याय ये पंचायतें कितनी ताकतवर हैं ,इस बात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे न केवल बर्बर वारदातों को कानूनी मान्यता दिलाने का एलानिया समर्थन करती हैं अपितु अपनी नाक के सवाल पर इसके खिलाफ निहित संवैधानिक प्रावधानों को भी आंख दिखाने का हौसला रखती हैं। क्या केंद्रीय सत्ता झूठे मान के लिए हत्या जैसी जघन्य वारदातों की पोषक खाप पंचायतों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान कर पाएगी? और अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो उसे यूथ बोट बैंक को भरमाने के कानून बनाने के नाम पर राजनीति करने की जरूरत नहीं है।
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