बुधवार, 22 जून 2011

सियासी दांवपेंचों में उलझा लोकपाल



जन लोकपाल के मसौदे के लिए गठित साझा समिति की नौवीं और आखिरी बैठक का सुखांत (सिर्फ सौहार्द पूर्ण बैठक) कैसा भी रहा हो, लेकिन वह भ्रष्टाचार के सवाल पर सिविल सोसायटी को संतुष्ट करने के बजाय सतर्क ज्यादा करता है। अंतत: आम सहमति बनाने में नाकाम रही इस कवायद का सीधा सा अर्थ तो यही है कि यूपीए सरकार व्यापक जनहित से जुड़े इस बेहद नाजुक मामले में सियासी दांवबाजी से बाज नहीं आ रही है। दरअसल, सहमति के रास्ते पर नहीं चलना यूपीए सरकार की राजनैतिक विवशता है। सत्ता,नौकरशाह और इन दोनों के बीच दलालों का त्रिगुटीय गठजोड़ सरकार को जनता के हाथों मजबूत जनलोकपाल देने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होने दे रहा है। मगर बावजूद इसके अगर ऐसे में सरकार की अकड़ एक बार फिर से जरा सी लचर हुई है तो इसका मतलब यह नहीं कि लोकपाल बिल मानसून सत्र में संसद के पटल पर आ ही जाएगा। भारी जन समर्थन और जोरदार दबाव के चलते सरकार यह तो अच्छी तरह से समझ चुकी है कि अब लोकपाल को और ज्यादा लटका पाना मुमकिन नहीं है। जाहिर है,सरकार की चिंता सिर्फ इस बात को लेकर है कि कैसे इस मसले को तकनीकी तौर पर सियासी दावपेंचों में फंसा दिया जाए और यही वजह है कि सरकार आम सहमति के बजाय अलगाव के रास्ते पर है। वह चाहे मसौदे में मौजूद असहमति के मुद्दों को कैबिनेट पर ले जाने का मामला हो या फिर सर्वदलीय सहमति बनाने का मसला । सरकार अपने गुनाहों में सियासी गुनहगारों का संख्या बल बढ़ाकर सिविल सोसायटी को ठेंगा दिखाने की कोशिश में है। देश को यह समझना होगा कि ताकतवर लोकपाल बिल से सत्ता सदैव भयभीत रही है। इस जनतांत्रिक देश में लोकपाल की अवधारणा आधी सदी पुरानी है। वर्ष 1989 से 2001के बीच लोकपाल बिल संसद में चार बार आ चुका है। हैरानी की बात तो यह है कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने से रोकने के लिए आज जिस ज्वाइंट कमेटी के प्रेसीडेंट और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी इतनी हाय तौबा मचा रहे हैं , इन्हीं प्रणव ने इसी लोकपाल के लिए दस साल पहले गठित संसद की स्टैंडिंग कमेटी के प्रेसीडेंट होने के नाते प्रधानमंत्री को लोकपाल की परिधि में लाने की सहमति जताई थी। आशय यह कि लोकपाल के मामले में सरकार बेहद दबाव में है। अभी तक प्रधानमंत्री को हर कीमत पर जनलोकपाल से दूर रखने की जिद पर अडिग रही सरकार ने अप्रकट रूप से सिविल सोसायटी के सामने घुटने टेके हैं लेकिन इस सरकारी तरलता से सहमति का रास्ता साफतौर पर नहीं खुलता है। बाधाएं पग-पग पर हैं। चाहे वह उच्च न्यायालयों, संसद के भीतर सांसदों का आचरण,सीबीआई और सीवीसी को भी जनलोकपाल के दायरे में लाने की मांग हो या फिर लोकपाल की नियुक्ति, पात्रता और उसे पदच्युत करने की प्रक्रिया के यक्ष प्रश्न हों। कहना न होगा कि सरकार सत्ता के अहंकार में भले ही फूल रही हो लेकिन वह इस तथ्य को समझ चुकी है कि जनलोकपाल से जुड़ी जनभावनाओं पर उसकी एक भी भूल अब बहुत भारी पड़ने वाली है। इस मामले में सर्वदलीय भूमिका से कुछ खास की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। जहां तक दलीय सवाल है तो सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

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