बुधवार, 1 जून 2011

बाल संरक्षण : बातें हैं बातों का क्या



स्वानों को मिलता दूध यहां,भूखे बच्चे अकुलाते हैं.. राष्ट्रकवि रामधानी सिंह दिनकर की आवाज आज भी तल्ख और ताजा है। इस कालजयी सच के साथ देश आज बाल संरक्षण दिवस मना रहा है, मगर इस परंपरागत आयोजन के मायने क्या हैं? सिर्फ उतने ही जितने हर सरकारी कथित सामाजिक सरोकार के होते हैं। बच्चों के प्रति भारतीय समाज की मानसिकता की असली तस्वीर हमें 15वीं जनसंख्या के शुरुआती आंकड़ें पहले ही दिखा चुके हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में बच्चों के लिंगानुपात में (927 से घटकर 914 )निचली दज्रे की इतनी गिरावट पहली बार देखी गई है। देश में एक दशक पहले कुल जनसंख्या का करीब 16 फीसदी बच्चे थे, लेकिन चालू साल की स्थिति में ये कम होकर करीब 13 फीसदी रह गए हैं। बच्चों में 3 प्रतिशत की चिंताजनक ऐतिहासिक गिरावट वस्तुत: भारत में घटती उर्वरकता की ओर खतरनाक इशारा करती है। इतना ही नहीं ये आंकड़े लिंगानुपात से जुड़ी हमारी सरकारी नीतियों की भी नए सिरे से अविलंब समीक्षा की चेतावनी देते हैं, लेकिन हम और हमारी सरकारें अंतत: बाल संरक्षण के सवाल पर आयोजित सालाना जलसों में सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें करके बात खत्म कर देते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण कहता है, देश में तीन साल से कम उम्र के 46 फीसदी से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इस मामले में एक दशक के दौरान सिर्फ एक प्रतिशत की कमी आई है। मध्यप्रदेश की हालत तो और भी खराब है। सेंटर फार बजट गवेर्नेस एंड अकाउंट बिलिटी की मानें तो प्रदेश सरकार बच्चों के स्वास्थ्य मद में जीडीपी का केवल 0.1प्रतिशत हिस्सा ही खर्च करती है। नेशनल क्र ाइम रिकार्ड ब्यूरो के दावे के मुताबिक देश म ेएक दशक के दौरान ही बाल अपराधों में ढाई गुना इजाफा हुआ है। कुल अपराधों के मुकाबले बाल अपराधों की दर 2.1 प्रतिशत है। और तो और सीएसीएल की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 70 से 80 लाख बाल श्रमिक हैं। जनगणना के ताजा आंकड़े गर्भ में ही कन्या कत्ल की भी गवाही देते हैं। बीस साल में एक करोड़ से भी ज्यादा भ्रूण हत्याएं दर्ज की गई है। आंकड़ों की यह बानगी पत्थर की लकीर न सही, लेकिन सच के इर्दगिर्द एक भयावह और शर्मनाक तस्वीर तो बनाते ही है। यह कितना दुखद है कि खेलने-खाने और पढ़ने की मासूम सी उम्र में बच्चे दो जून की रोटी के लिए रोज खपने-खटने को मजबूर हैं। बच्चों के यूं दर-बदर होते,तार-तार होते सपनों और लुटते-पिटते बचपन के लिए अक्सर उनके वो मां-बाप ही जिम्मेदार होते हैं, जो उन्हें इस दुनिया में लाकर अकेला छोड़ देते हैं । इसके लिए हमारी सरकारें भी कम जिम्मेदार नहीं हैं ,जो गरीबी निर्मूूलन के नाम पर सत्ता का सुख भोगती हैं । मगर बावजूद इसके बेशर्मी देखिए,भारत सरकार के पास निर्विवाद रूप से देश की गरीब आबादी के वास्तविक आंकड़े तक नहीं हैं। कहना न होगा कि बहुसंख्यक बच्चों की इस दरुगति के लिए बुनियादी तौर पर गरीबी ही दोषी है। तेजी के साथ बदले सामाजिक परिवेश के बीच टूटते संयुक्त परिवारों ने भी अंतत: बच्चों पर ही कहर ढाए हैं। बच्चों की खुशहाली के ठेके का ठीकरा अकेले सरकार के सिर पर फोड़ना ठीक नहीं। यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है।

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