शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
एक गरीब की मौत पर संवेदनाओं का कर्मकांड
बीमारी से ज्यादा गरीबी पर कुर्बान नरपत अपने आखिरी सफर में भले ही कफन-दफन को तरस गया हो,लेकिन अपने पीछे वह सोती सरकार को झकझोर जरूर गया है। यह बूढ़ा शख्स एक ऐसा सवाल खड़ा कर गया है ,जो शायद ही इससे पहले कभी उठा हो? असल में इस खुदगर्ज जमाने से जाते-जाते नरपत गरीबों की मौत पर अंतिम संस्कार के लिए सरकारी आर्थिक सहयोग के प्रावधान की बुनियाद रख गया। छतरपुर के नारायण बाग का नरपत टीबी से तस्त्र था और बीमारी से ज्यादा गरीबी की असहनीय यंत्रणा उसे भीतर तक तोड़ चुकी थी। मौत तय थी। पत्नी सावित्री के सिवाय उसका अपना कोई नहीं था। अपना कहने को कुछ और था तो वह थी , घास फूस की छोटी सी झोपड़ी। बुजुर्ग बेसहारा दंपत्ति की महज इतनी ही दुनिया थी। कफन-दफन के लिए भीख मांग कर लकड़ियां जुटाई गईं तो वह भी कम पड़ गईं। सावित्री ने अपनी झोपड़ी के छप्पर भी चिता में स्वाहा कर दिए लेकिन बावजूद इसके लाश अधजली रह गई। इसी बीच कुछ समाजसेवियों ने मदद के लिए सरकारी नुमाइंदों के आगे हाथ पसारे मगर कलेक्टरसे कमिश्नर तक मदद का सवाल कानून-कायदे , शासकीय प्रावधान और सरकारी सिस्टम में ही उलझ कर रह गया। बदले में अफसरशाही से रटा-रटाया टका सा जवाब मिला कि सिर्फ लावारिश शवों को दफनाने के लिए पैसे का प्रावधान है। राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर भी मानते हैं कि नरपत जैसे मामलों में अंतिम संस्कार के लिए सरकारी तौर पर आर्थिक मदद का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन अब ध्यान में आई इस मांग पर विचार होगा। सवाल यह है कि निपट निर्धन नरपत को अब आखिर चाहिए ही क्या था? दो गज जमीन,थोड़ा सा कफन और महज एक चिंगारी आग ही संवेदनाओं की इस चिता के लिए बहुत ज्यादा थी। इसी छतरपुर में 6 माह के अंदर अंतिम संस्कार की ऐसी दूसरी घटना है। सच तो यह है कि प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े बुंदेलखंड में संवेदनाओं के ऐसे कर्मकांड इस अंचल की नीयति बन चुके हैं। मध्यप्रदेश का बुंदेलखंड वस्तुत: सिर्फ एक संबोधन नहीं है। खनिज-वनज संपदा से लबालब यह वही खूबसूरत अंचल है, जहां के बेशकीमती हीरों की दुनिया दीवानी है। बेहतरीन ग्रेनाइट, एक से बढ़ कर एक नैसर्गिक पर्यटन स्थल और मंदिरों के शहर। मगर इस पहचान की बुनियाद में बदहाली बहुत गहरे से पैबस्त है। केंद्र के अलावा एमपी-यूपी सरकारों को बुंदेलखंड से सालाना 500 अरब की राजस्व आय होती है। मध्यप्रदेश सरकार को अकेले पन्ना के हीरों की नीलामी से 1400 करोड़ का मुनाफा होता है। प्राय: आरोप लगते रहे हैं कि केंद्र -राज्य सरकारें स्थानीय विकास में इस आय का 20 प्रतिशत भी खर्च नहीं करती हैं। बुंदेलखंड के 56 फीसदी मूल बासिंदे पलायन कर चुके हैं। अवर्षा अभिशाप है। सात नदियों के इस अंचल की सूखा विकट समस्या है। खेत सूखे हैं और पेट भूखे । न पास में रोजगार है और न दूर-दूर व्यापार की उम्मीद है। एक सैम्पल सर्वे कहता है, बुंदेलखंड के 68 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं कि गरीबी ही इस अंचल की भाग्य रेखा है। सीमांत किसान साहूकारों के चंगुल में हैं। कहना न होगा कि नरपत ऐसे ही एक दयनीय सामाजिक जीवन की प्रतिनिधि है।
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
कन्या पूजन: एक और सरकारी नवाचार
बालिका अत्याचार की बदौलत पूरे देश में शर्मशार मध्यप्रदेश की सरकार क्या बेटियों के प्रति अब सचमुच संजीदा हो रही है? वोट की राजनीति के सतही सियासी नजरिए से इतर अगर इंदौर प्रवास के दौरान एयरपोर्ट में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की गोद में दुबकी महज ढाई साल की मासूम सौम्या को देखें तो किसी पत्थर दिल का भी कलेजा भी दहल जाएगा। एक दर्दनाक सड़क हादसे में अपना पूरा परिवार खो चुकी इस नन्हीं सी जान को दुलराते हुए जब सीएम ने उसे दो लाख का चेक पकड़ाने की कोशिश की तो वह नाकाम रहे। इस बड़ी कीमत से बेखबर र्निविकार सौम्या की आंखों में शायद एक ही सवाल था। जैसे कह रही हो,मुङो यह नहीं चाहिए। कहां है,मेरी मां..मुख्यमंत्री खुद को नहीं रोक पाए। सौम्या को मध्यप्रदेश की बेटी का खिताब देते हुए उन्होंने उसके लालन-पालन के लिए चार लाख की सरकारी एफडी का एलान किया। कहा-सरकार सौम्या की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। सरकार और समाज ही अब इसका परिवार है। वास्तव में ऐसी सरकारी संवेदना स्वागत योग्य है। सवाल यह है कि निजता तोड़ते ऐसे सामाजिक सरोकारों से संवेदना शून्य समाज कब सबक लेगा? पूरा देश जानता है। मध्यप्रदेश में बेटियों के हालात अच्छे नहीं हैं। एक दशक के दौरान प्रदेश में शून्य से 6 साल के बच्चों के लिंगानुपात में 20 अंकों की गिरावट आई है। राज्य के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है,जब प्रति हजार लड़कों के बीच लड़कियों के अनुपात 9 सौ से भी नीचे चला गया है। अनपढ़ों की तो छोड़ें इंदौर और ग्वालियर जैसे शुद्ध शहरी मानसिकता के महानगर हों या फिर तेजी के साथ अर्ध महानगरीय आकार ले रहे सतना-रीवा जैसे पढ़े लिखे शहर। आज अगर लिंगानुपात का संतुलन बिगाड़ रहे हैं तो इसके पीछे क्या विकृत सामाजिक सोच नहीं है? सरकार की भी अपनी सीमाएं और विवशताएं हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक इंसानियत को शर्मसार करता सच तो यह है कि मासूम बच्चों खासकर नाबालिग बालिकाओं के दैहिक शोषण के मामले में मध्यप्रदेश पूरे देश में शीर्ष पर है। जबलपुर और राजधानी भोपाल जैसे सभ्य शहर भी पीछे नहीं हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल पूरे देश में बलिकाओं से हुए रेप की अकेले 20 प्रतिशत वारदातें स्वर्णिम प्रदेश का दिवास्वप्न देख रहे मध्यप्रदेश में हुई हैं। क्या इसके लिए समाज नहीं सरकार जिम्मेदार है? शायद इन्हीं वारदातों से सबक लेकर सरकार अब सामाजिक दायित्व निभाने के एक और संकल्प को मूर्तरूप देने की कोशिश में है। शक्ति पूजा के पर्व नवरात्र से समूचे राज्य में शुरू हो रहे बेटी बचाओ अभियान का सरकारी इरादा गांव-गांव, गली-गली पहुंच कर अलख जगाना है। इस अभियान को अंजाम तक पहुंचाने के लिए सत्ता और संगठन के स्तर पर साझा कार्यक्रम को अंतिम रूप देने का जिम्मा सामाजिक न्यायमंत्री की अगुआई में 6 सदस्यीय मंत्रियों की एक टीम को दिया गया है। बेटी बचाओ अभियान को बढ़ावा देने के लिए अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री स्वयं कन्या पूजन कर अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को भी इसके लिए प्रेरित करेंगे। उम्मीद लगाई जानी चाहिए कि कन्यादान और लाड़ली लक्ष्मी जैसे नवाचारों का सफलत आयोजन कर चुकी प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार राज्य में बेटी बचाओ अभियान चला कर देश के सामने एक और नजीर पेश करेगी।
बुधवार, 24 अगस्त 2011
और जब सरपट दौड़ी दहशत
विधान सभा भवन से कुछ ही फासले पर बीएचईएल के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में क्लोरीन गैस के रिसाव का आपात संकट भले ही टल गया हो, लेकिन ऐसे तमाम जानलेवा खतरे इतनी आसानी से खत्म होने वाले नहीं हैं। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रसदी का दंश ङोल चुकी राजधानी भोपाल अब इस कदर संवेदनशील है कि हवा के रुख में जरा सी तल्खी भी रूह फना कर देती है। हत्यारिन मिथाइल आइसोसाइनेट के हाथों 15 हजार से भी ज्यादा मौतों का भुतहा मंजर देख चुके इस खूबसूरत शहर में अगर अब जरा सी रसोई गैस भी रिसती है तो सिहरन, सनसनी, अफरातफरी और हड़कंप के साथ दहशत सरपट दौड़ पड़ती है। मध्य प्रदेश के जल शोधन गृहों में 8 माह के दौरान क्लोरीन गैस रिसने की यह तीसरी और एक माह के अंदर दूसरी बड़ी घटना है। जनवरी में शहडोल के बरगवां स्थित एक जूट मिल के वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में क्लोरीन के रिसाव से दो सौ लोगों की हालत बिगड़ गई थी। ऐसा ही एक हादसा पिछले माह राजगढ़ स्थित पीएचई के जलशोधन गृह में होने से सैकड़ों लोग चपेट में आ गए थे , बावजूद इसके हमारी मानवीय लापरवाही कभी भी और कैसा भी कातिलाना जोखिम लेने को तैयार है। बीएचईएल के जल शोधन गृह में जब क्लोरीन का रिसाव हुआ तब हवा उत्तर से पश्चिम की ओर बह रही थी। यानि बिड़ला मंदिर के विपरीत बसी झुग्गियां बाल-बाल बच गईं। आंखों में जलन और घुटन के बीच जब सच समझ में आया तब तक सौ से भी ज्यादा लोग फंस चुके थे। गनीमत थी कि गैस की सांद्रता 60 से कम थी। कहते हैं, इसकी अधिकता और निरंतरता सीधे फेफड़े फाड़ती है और समूचे श्वसन तंत्र को जख्मी कर देती है,इसके कहर से आंखें भी अछूती नहीं रहतीं। सरकारी दावे के मुताबिक हालात दो घंटे के अंदर काबू में आ गए, लेकिन क्या अकेले यही खुशफहमी काफी है? असल में क्लोरीन का आम आदमी के दैनिक जीवन से गहरा नाता है। ऐसे में अतिरिक्त सतर्कता के बगैर इन हादसों को रोक पाना संभव नहीं है। विशेषज्ञों की मानें तो क्लोरीन से जल का शोधन भी किसी साइलेंट किलर से कम नहीं है। जल जनित बीमारियां स्थाई समस्या है। जल में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया के शमन के लिए क्लोरीन गैस के जरिए जल का उपचार किया जाता है। नियमानुसार जल शुद्धीकरण में क्लोरीन की निर्धारित मात्र का इस्तेमाल होना चाहिए। ओटी टेस्ट पॉजीटिव इसका मानक है, मगर ऐसा होता नहीं है। पानी में मिलाया जाने वाला क्लोरीन वास्तव में कैल्शियम हाइपो क्लोराइड होता है। जो पानी में मौजूद आक्सीजन के फ्री रेडिकल को खत्म कर देता है। यह एक ऐसा सॉल्ट है जिसके अपने साइड इफैक्ट हैं। मसलन-बालों का झड़ना, त्वचा के रोग, अल्सर और गैस्ट्रिक की समस्या। यही वजह है कि पेरू समेत विभिन्न देशों में जल शुद्धिकरण के लिए क्लोरीन और उसी के घटक ब्लीचिंग के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है। पानी में क्लोरीन के अत्याधिक इस्तेमाल के खतरों की तरफ पहली बार दुनिया का ध्यान तब गया था जब इसी वजह से दक्षिण अफ्रीका में हैजे के कारण हजारों लोग मारे गए। विडंबना यह है कि हमारा लापरवाह सरकारी तंत्र गैस रिसाव की भारी कीमत चुकाने के बाद भी सबक लेने को तैयार नहीं है। जल शुद्धीकरण के लिए क्लोरीन के इतर वैकल्पिक उपाय तो दूर की बात है।
मंगलवार, 23 अगस्त 2011
फांसी:कहीं देर न हो जाए..
सुप्रीम कोर्ट ने भारत की शान, स्वाधीनता और संप्रभुता के प्रतीक लाल किले पर हमले के दोषी लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ उर्फ अशफाक की सजा-ए-मौत पर अपनी मुहर लगा दी है। यह दशक बाद ही सही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल राष्ट्रीय हित में जनभावनाओं का सम्मान है,अपितु यह सरहद पार बैठे देश के दुश्मनों के बीच गया एक कठोर संदेश भी है। इस फैसले का बुनियादी पहलू तो यह भी कि जांच अधिकारियों के सामने यह मामला अंधेरे में सुई खोजने जैसा था। कोई सुराग नहीं,सिर्फ एक पर्ची थी। इसी सहारे जांच टीम पूरी तरह से निष्पक्ष, स्वतंत्र और फोरेंसिक पड़ताल में कामयाब रही। किसी विदेशी आतंकवादी को फांसी की सजा देने का यह कोई पहला मामला नहीं है। वर्ष 2001 में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत, संसद भवन पर हमले के गुनाहगार जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी मोहम्मद अफजल गुरू को भी सर्वोच्च अदालत फांसी की सजा दे चुकी है। अफजल की सजा कम करने बावत एक दया याचिका राष्ट्रपति के समक्ष विचाराधीन है। हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति से यह याचिका खारिज कर देने की सिफारिश की है। सरकार की इस सिफारिश के बाद अफजल गुरु को भी सजा-ए-मौत तय है। इसी तरह 26/11 के मुंबई अटैक के आतंकी अजमल कसाब को भी आरोप प्रमाणित होने पर मुंबई हाईकोर्ट ने फांसी की सजा सुना रखी है। सजा कम करने की याचिका के साथ कसाब भी सुप्रीम कोर्ट की शरण में है। कसाब को अगर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती है तो वह अफजल गुरू की तरह राष्ट्रपति के पास जा सकता है। अशफाक के सामने भी यही विकल्प खुला है। राष्ट्रपति के पास दया याचिका के लगभग 50 मामले लंबित हैं । इतना तो तय है कि देश के इन विदेशी दुश्मनों को राष्ट्रपति से दयादान संभव नहीं है,लेकिन सवाल यह है कि आखिर इन खतरनाक आतंकवादियों को यूं जिंदगी और मौत के बीच लटकाए रखने का फायदा क्या है? जेल में कैद इंसानियत के इन दुश्मनों की गिरफ्तारियों को क्या हम देश हित में इस्तेमाल कर पाए हैं? क्या हम इनसे इनके भारतीय संबंधों का पता लगा पाए हैं? सुरक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि देश में ऐसे आतंकी हमले बगैर लोकल सपोर्ट के संभव नहीं हैं। क्या इनका इस्तेमाल आस्तीन के सांपों को सामने लाने में नहीं किया जा सकता था? और अगर वास्तव में ऐसा संभव नहीं है तो फिर कसाब जैसे कसाइयों की हिफाजत में करोड़ों खर्च करने का आखिर अर्थ क्या है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कंधार मामले में भारतीय विमान के अपहरण के दौरान भारत सरकार को आतंकियों के सामने किस तरह से घुटने टेकने पड़े थे। खूंखार साथियों की रिहाई के लिए आतंकी नीचता की किस हद तक जा सकते हैं ,यह किसी से छिपा नहीं है। यह भी कम हैरतंगेज नहीं कि देश में फांसी की सजाएं तो हो रही हैं, लेकिन फांसी देने की व्यवस्था दम तोड़ चुकी है। 16 साल से फांसी की एक भी सजा अमल में नहीं लाई जा सकी है। जबकि देश में 7 साल के अंदर ऐसी 279 से भी ज्यादा सजाएं सुनाई गई हैं। देश में एक भी जल्लाद नहीं बचा है। फंदे पर लटका कर फांसी देने की ब्रिटिशकालीन प्रथा के इतर मौत की सजा के दीगर उपायों पर भी विचार करना होगा।
सड़क पर नरसंहार और सरकार
सवारी बैठाने को लेकर हुए विवाद में एक बस के ड्राइवर-क्लीनर ने दूसरी बस के गेट बंद कर यात्रियों को बंधक बनाया और आग लगा दी। बड़वानी जिले में सेंधवा के करीब दिनदहाड़े हुई इस लोम हर्षक वारदात में 10 यात्री जलकर भस्म हो गए। 4 मरणासन्न हैं। गंभीर रूप से जख्मी 15 अन्य यात्रियों का इलाज चल रहा है। मरने वालों में ज्यादातर बच्चे और महिलाएं हैं क्योंकि वे लोग खिड़कियों से कूद कर भाग नहीं पाए थे। बालसमुद स्थित जिस चेक पोस्ट पर यह नरसंहार हुआ वह राज्य की अंतरराज्यीय सीमा पर स्थित प्रदेश सरकार की सबसे लाड़ली चेकिंग चौकी है। यह चौकी सरहद पर स्थित कुल 24 चेकपोस्टों में से न केवल सबसे ज्यादा कमाऊ है बल्कि मध्यप्रदेश का इकलौता हाईटेक चेक पोस्ट भी है। हर माह लगभग 50 लाख का राजस्व कमाने वाला यह वही चेकपोस्ट है, जहां तैनाती के लिए पुलिस-परिवहन और वाणिज्यिक विभाग का अमला बड़ी से बड़ी बोली लगाने में भी पीछे नहीं रहता है। सवाल यह है कि वारदात के समय ये सरकारी सूरमा आखिर कहां थे? इस लोमहर्षक कांड पर मुख्यमंत्री के दर्द को भी समझा जा सकता है। जिन परिवारों पर पीड़ा का असहनीय पहाड़ टूटा है, उन्हें शायद ही अधिकतम सरकारी इमदाद भी जरा सी राहत दे पाए? लेकिन कानून अपना काम कर रहा है। कलेक्टर ने मजिस्ट्रीयल जांच के आदेश दे दिए हैं। कहते हैं, अपराधी भी पुलिस के हाथ लग गए हैं। बिस्तर पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे यात्रियों को अफसर अस्पताल पहुंच कर पुचकार आए हैं। फौरी तौर पर सरकार जो कर सकती थी कर रही है। इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है। दोष तो उन बेकसूरों का था जो बेमौत मारे गए। उनका गुनाह यही था कि वे अराजक व्यवस्था में रहने को मजबूर थे। एक ऐसी व्यवस्था जहां किसी को यह जानने की फिक्र नहीं है कि यात्री बसें आखिर एक ही रूट पर एक ही समय पर परस्पर ओवरटेक करते हुए किस नियम के तहत चलती हैं? प्रदेश की कमोबेश सभी 681 अराष्ट्रीयकृत मार्गो पर बेलगाम दौड़ रहीं 15 हजार से भी ज्यादा यात्री बसों का यही रवैया है। लंबी दूरी की बसों के टुकड़ों में परमिट देखने वाला कोई नहीं है। अवैध बसों का भी कोई हिसाब नहीं है। यात्री सुविधा,सुरक्षा और किराया दर की निगरानी के सरकारी उड़न दस्ते कागजों पर दौड़ रहे हैं। मनमानी मुनाफे के लिए देखते ही देखते राज्य सड़क परिवहन निगम को ताकतवर परिवहन माफिया किस तरह खा गया,सब जानते हैं। निगम के बंद होने के बाद निजी बसों पर निर्भरता बढ़ी है। प्रदेश के भौगोलिक हालात ऐसे हैं कि रेल का व्यापक विस्तार संभव नहीं है। आज भी तमाम जिला मुख्यालयों में रेल की कल्पना तक कठिन है। स्लीपर कोच बसों के लिए कानून तो है लेकिन किराए का कंट्रोल सरकार के पास नहीं है। खुली परमिट नीति, एकीकृत व्यवस्था की जगह स्वस्फूर्त किराया नीति,मोटरयान कर के त्रिस्तरीय परंपरागत प्रबंधों के विपरीत मुक्त सरल कराधान जैसे बस ऑपरेटर्स को उपकृत करते उपाय अपनाने में तो सरकार सबसे आगे है,लेकिन राजमार्गो पर ट्रामा सेंटर,ट्रांजिट सिस्टम,इलेक्ट्रॉनिक चेकपोस्ट और फिटनेस चेकिंग जैसे उसके अपने ही नीतिगत दावे धूल फांक रहे हैं। ऐसे में यह भ्रम स्वाभाविक है कि शायद सरकार परिवहन माफिया के कदमों पर नतमस्तक है। सड़क पर जिस की लाठी उसी की भैंस है।
मीडिया: आप तो ऐसे न थे
लोक के कदमों पर नतमस्तक तंत्र की लोकतांत्रिक शक्ति का यह अद्भुत दृश्य देखकर दुनिया दंग है। सिर्फ चंद घंटों में एक अभियान के यूं आंदोलित हो जाने का ऐसा अचरज सिर्फ विश्व के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में ही संभव है। गांधी की समाधि के समक्ष ध्यानस्थ एक गांधीवादी के शांत-चित्त चित्र जैसे ही दिलों में उतर कर मर्म तक मार करते हैं,दिल वालों की दिल्ली राजघाट की ओर सरपट दौड़ पड़ती हैऔर देखते ही देखते अहिंसा की अपार शक्ति से अभिभूत देश की तस्वीर तब देखते बनती है। संजीदा माहौल मगर तनाव का विचलन तक नहीं। चौतरफा जोश के साथ होश और गजब का जुनून। अतिशयोक्ति नहीं कि इसी क्षण अण्णा हजारे सविनय अवज्ञा के एक नए प्रबोधक बन कर उभरते हैं और किसी लोकनायक की तरह एक व्यापक जनवाद के स्वर मुखर होते हैं। ऐसा कैसे संभव है? महज 12 घंटे के भीतर कोई अभियान आखिर आंदोलन की शक्ल कैसे ले सकता है? किसी को जनमत एक झटके में बतौर लोकनायक कैसेअंगीकृत कर सकता है? असल में इस आंदोलन के नेपथ्य में एक ऐसा अभियान था जिसकी बुनियाद स्पष्टत: चार कारकों पर केंद्रित है। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार और जानलेवा महंगाई से आहत और तिरस्कृत बहुसंख्यक मध्यमवर्ग, न्यायिक सक्रियता की तर्ज पर मीडिया की अप्रत्याशित रूप से अति सक्रियता,सटीक मसले पर गैर राजनैतिक नि:स्वार्थ नेतृत्व की गारंटी और निरंकुश सत्ता के गलियारों में नक्कारखाने की तूती। यह श्रेय किसी एक को नहीं जाता है। इसमें अप्रकट रूप से उस आम धारणा की भी बड़ी भूमिका है जो सत्ता के साथ नौकरशाही और पूंजीपतियों के गठजोड़ को भ्रष्टाचार और इस भ्रष्टचार को महंगाई के लिए जिम्मेदार मानती है। कहना न होगा कि सोशल मीडिया के रास्ते एक ओर जहां यह अभियान नई पीढ़ी के फेसबुकिया इंडिया के कान भरता है वहीं अति उत्साही इलेक्ट्रानिक मीडिया अपने लाइव कवरेज में कदम-दर-कदम फॉलोअप और हर पल ताजा अपडेट से आंखे खोलता है।अपने परंपरागत आचरण के एकदम विपरीत मीडिया सरकारी कोपभाजन के दूरगामी नतीजों की फिक्र तक नहीं करता है। प्रोफेशनल मीडिया एकबारगी मार्गदर्शी मीडिया की नई भूमिका में अवतरित हो जाता है। सधे -सधाए संयमित न्यूज एंकर और सतर्क रिपोर्टर सनसनीखेज मसाला खबरों से बहुत दूर बमुश्किल तभी सूत्रों का हवाला देते हैं ,जब उन्हें लोगों से सीधे संवाद में अड़चन लगती है। चाहे वह तिहाड़ से अण्णा की रिहाई की अटकलें हों या फिर हिरासत में तबियत नासाज होने की अफवाहें। देश के साथ मीडिया निरंतर संवाद करता है। यह वही अभियान है जिसने एक अभियान को आंदोलन की शक्ति दे दी है। देश को मीडिया का स्वस्फू र्त समर्थन न केवल उससे जुड़े अब तक के तमाम मिथकों को तोड़ता है, अपितु सामाजिक सरोकार के प्रति अपनी संजीदगी को विश्वसनीय भी बनाता है। लोकपक्ष के इस दिव्य प्रकटीकरण के पीछे बेशक मीडिया की सकारात्मक समझ है। अखिल भारतीय स्तर पर यह पहला चमत्कारिक अनुभव है। जो साबित करता है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा पाया यूं ही नहीं है। बेलगाम विधायिका और अराजक कार्यपालिका के खिलाफ जब न्यायपालिका सक्रिय हो सकती है तो प्रेस अपनी भूमिका के प्रति निष्क्रिय कैसे रह सकता है?
सिविल सोसायटी पर सियासी साया
भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल के लिए जादुई अंदाज में उमड़ा अण्णा हजारे का आंदोलन क्या जाने-अनजाने पॉलीटिकली हाई जैक होता जा रहा है? कम से कम ताजा तस्वीर तो ऐसे ही संकेत देती है। सिविल सोसायटी और सरकारी लोकपाल के बीच एनसीपीआरआई के तीसरे रहस्यमयी लोकपाल का प्रकटीकरण, यूपी में बरेली से कांग्रेस के सांसद प्रवीण ऐरन का अण्णा मोह, यूपी के ही पीलीभीत से भाजपा सांसद वरूण गांधी द्वारा सिविल सोसायटी के जन लोकपाल को संसद में पेश करने का एलान, दिल्ली की सांसद शीला दीक्षित के सांसद बेटे संदीप दीक्षित का अण्णा गान , गतिरोध तोड़ कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का टीम अण्णा से बातचीत के लिए रास्ता बनाने की बेचैनी, महाराष्ट्र के अतिरिक्त गृह सचिव उमेश चंद्र सारंगी की अण्णा से मुलाकात। तेजी के साथ सामने आए ये तमाम ऐसे राजनीतिक नाटकीय मोड़ हैं, जो सरकार के निरंतर दबाव में आने की गवाही देते हैं। बेशक सरकार ने भी वैकल्पिक राह पकड़ने के लिए तरह-तरह के टोटके आजमाने शुरू कर दिए हैं। मसलन- कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएससी )की अरूणा राय का जन लोकपाल पर एक और मसौदा सरकार की ऐसी ही किसी रणनीति का हिस्सा कहा जा सकता है। अरूणा एनएससी के अलावा नेशनल कम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की भी सदस्य हैं और जनलोकपाल का यह तीसरा ड्रॉफ्ट कथित तौर पर इसी एनसीपीआरआई ने बनाया है। खासियत यह भी है कि यह प्रस्ताव सिविल सोसायटी के मसौदे से तकरीबन-तकरीबन मेल खाता है। खासकर कांग्रेस के दो सांसदों प्रवीण ऐरन और संदीप दीक्षित की अण्णा के प्रति पैरवी भी सरकारी रणनीति का ही कूटनीतिक हिस्सा लगती है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि सरकार गतिरोध तोड़कर टीम अण्णा के साथ बैक डोर से कोई बीच का रास्ता तलाशने की कोशिश में है लेकिन अड़चन यह है कि भारी जन समर्थन से अभिभूत सिविल सोसायटी सत्ता को शिकस्त देने की राह पर भटक सी रही है। अण्णा की इच्छा सूची बढ़ती ही जा रही है। लगता नहीं कि यह किसी समाधान का सकारात्मक रास्ता है। सिविल सोसायटी को यह नहीं भूलना चाहिए कि आंदोलन आज निर्णय के जिस नाजुक मुकाम पर है उसके नीचे एक सियासी जमीन बनती जा रही है। आशय यह कि जन दबाव के चलते सरकार के दबाव में आने का भ्रम पालना ठीक नहीं है। सच तो यह है कि अगर सत्ता को घेरने का अवसर कैश कराने की कोशिश में लामबंद विपक्ष उसके बचाव में नहीं आया होता तो सिविल सोसायटी को उसकी संवैधानिक हैसियत बताकर सरकार संसदीय अवमान के आरोप में उसे कब का घेर कर घायल कर चुकी होती। सिविल सोसायटी के जनलोकपाल को संसद में ले जाने के भाजपा सांसद वरूण गांधी के एलान का तीर चलाकर पार्टी के रणनीतिकारों ने इस आंदोलन को एक नया मोड़ देने की कोशिश की है। इसे इत्तफाक ही कहें कि देश के संसदीय इतिहास में पहली बार इन्हीं वरूण गांधी के पितामह फिरोज गांधी पहली बार 1956 में संसदीय कार्यवाही संरक्षण विधेयक ले कर आए थे। भाजपा के इस दाव को सत्तारूढ़ कांग्रेस की बैचेनी को यूं भी देखा जा सकता है। ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल की पीएम पद पर ताजपोशी की अटकलें भी लाजिमी ही हैं।
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