गुरुवार, 28 जुलाई 2011

खुशरंग हिना की खुशफहमी के खतरे


भारत-पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की मुलाकात का कुल जमा लब्बोलुआब यही है कि इस मसले पर भारतीय नेतृत्व की कोई भी खुशफहमी उसी पर भारी पड़ सकती है। पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार के अंदाज और अंदाज-ए-बयां पर न तो मंत्र मुग्ध होने की जरूरत है और न ही आत्ममुग्ध होने की आवश्यकता है। भारतीय नेतृत्व अगर इस द्विपक्षीय वार्ता को एक बड़ी कामयाबी मानता है तो वह खुद भी धोखे में है और देश को भी धोखा दे रहा है। भारत की धरती पर कदम रखते ही हिना ने अलगाववादियों से मुलाकात कर साफ कर दिया कि चेहरे बदल लेने से मंशा नहीं बदल जाती है। हुर्रियत के दोनों नेताओं से अलग-अलग मुलाकात कर उन्होंने यह भी संकेत दे दिए हैं कि कश्मीर मसले पर भारत विरोधियों का साथ ही उनकी प्राथमिकता है। जबकि हिना को अलगाववादियों से मुलाकात की इजाजत इस शर्त पर दी गई थी कि बातचीत के दौरान विदेश मंत्री एमएम कृष्णा मौजूद रहेंगे और मुलाकात विदेश मंत्रियों के साथ बैठक के बाद ही होगी लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर प्रौढ़ भारतीय नेतृत्व में गच्च देकर हिना ने लगे हाथ यह भी बता दिया कि वह कच्ची खिलाड़ी नहीं हैं। कश्मीर पर पाक का नापाक मकसद तो साफ है लेकिन भारत सरकार की नीयत भी कुछ ठीक नहीं लगती है। क्या,लाइन ऑफ कंट्रोल में आवाजाही और कारोबार की बाधाएं दूर कर कश्मीर के लिए यात्र शर्तो में छूट देने के भारत के समझौते का यह सही वक्त है? क्या यह पाकिस्तान के सामने बिछ जाने जैसा नहीं है। भारत की पाक पर मेहरबानी का यह इकलौता उदाहरण नहीं है। याद करें, 26/11 के मुंबई धमाकों के बाद भारत ने ही पाकिस्तान के साथ बातचीत पर पाबंदी लगाई थी। बातचीत फिर से बहाल करने की पहल भी अंतत: भारत ने की और अब दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री स्तरीय बैठक तब हुई जब मुंबई में फिर से हुए धमाके के जख्म अभी भी ताजा हैं लेकिन बैठक रद्द करना तो दूर भारत ने 13/7 के मुंबई धमाकों के लिए पाकिस्तानी हाथ होने के आरोप तक नहीं लगाए। इतना ही नहीं सरकार ने सहज रूप से मान लिया कि हमले में इंडियन मुजाहिदीन जैसे घरेलू चरमपंथियों का हाथ है। इस तर्क के दौरान भारतीय गृह मंत्रलय यह भी भूल गया कि उसी की जांच और सुरक्षा एजेंसियां कई बार यह साबित कर चुकी हैं कि इंडियन मुजाहिदीन के तार विदेशी आतंकवादियों से जुड़े हैं। सब जानते है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पर सैन्य शासन चलता है। अत: ये राजनीतिक कवायदें गले नहीं उतरती हैं। अब यकीन तभी किया जा सकता है, जब बातचीत का असर जमीनी स्तर पर दिखे। सरहद पार से घुसपैठ बंद हो। पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकी अड्डे नष्ट किए जाएं और आतंकी हमलों का सिलसिला खत्म हो,लेकिन दूर-दूर तक ऐसी उम्मीद फिलहाल नहीं दिखती है। दोस्ताना रिश्तों के सवाल पर पाकिस्तान के साथ भारतीय अनुभव
बताता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। बावजूद इसके अगर पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की नसीहत को भारत मान भी ले तो आप आखिर अतीत को कैसे भूल सकते हैं वह भी तब-जब राष्ट्रीय अस्तित्व और अस्मिता का संकट ही अतीत की जड़ों में पैबस्त हो । इतिहास से सबक लेने का तकाजा तो यही है कि हम अब और एतिहासिक भूलों की ओर आगे न बढ़ें। कम से कम अतीत को भूल कर पाकिस्तान से किसी नए अध्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

भारत रत्न: खेलधर्म और धर्मसंकट



खेल के क्षेत्र में भारत रत्न का रास्ता साफ होने के बाद समर्थकों की शक्ल में फिलहाल इसके दो दावेदार सामने हैं। एक क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर और दूसरे हैं ,राष्ट्रीय खेल हॉकी के जादूगर स्वयर्गीय ध्यानचंद। इसमें शक नहीं कि क्रिकेट परदेशी खेल होने के बाद भी आज लगभग राष्ट्रीय धर्म बन गया है। इसके लाखो लाख अनुयायी हैं और सचिन तेंडुलकर इन्ही अनुयायियों के लिए क्रिकेट के भगवान हैं लेकिन खेल के क्षेत्र में इस प्रतिष्ठा पूर्ण प्रथम भारत रत्न की दावेदारी का एक और पक्ष भी है। ध्यानचंद के समर्थन में खड़े मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राय में कम से कम खेल जगत का पहले भारत रत्न पर तो मेजर ध्यानचंद का ही असली अधिकार है। इसका आशय यह नहीं कि महान क्रिकेटर सचिन इसके हकदार नहीं हैं। इस मसले पर मुख्यमंत्री या फिर ध्यानचंद समर्थकों के अपने निहितार्थ हो सकते हैं, मगर इतना तय है कि अगर यह मांग जोर पकड़ती है तो देश के प्रति सचिन की जिम्मेदारी संवेदनशीलता की हद तक बढ़ सकती है। यह वही नाजुक अवसर होगा जब इस मामले में सियासी सक्रियता के खतरे बढ़ेंगे। क्या ,ऐसी सूरत में विश्व के महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर भारत रत्न के लिए ध्यानचंद के नाम का प्रस्ताव करने का साहस जुटा पाएंगे? देश में उनके लाखों लाख समर्थक अगर उन्हें क्रिकेट का भगवान मानते हैं तो क्या राष्ट्रीयता के प्रति उनके इस बलिदान से देश को एक अच्छा संदेश नहीं जाएगा? बेशक, ऐसा कर वह क्रिकेट में अपने कृतित्व के ही नहीं अपितु व्यक्तित्व से भी भगवान होने की पुष्टि कर सकते हैं। दुनिया को एक ऐसा संदेश दे सकते हैं, जैसा जवाब आज से 75 साल पहले जर्मनी के तानाशाह हिटलर को ध्यानचंद ने दिया था। बहुत कम लोग जानते हैं कि 1936 में बर्लिन ओलपिंक में जब भारत ने जर्मनी को 8-1 से रौंद दिया तो इस खेल के चश्मदीद हिटलर ने ध्यानचंद के सामने जर्मनी की ओर से खेलने का प्रस्ताव रखा। बदले में जर्मन सेना में जनरल बना देने का प्रलोभन भी था। यह वह दौर था जब भारत गुलाम था और जर्मनी दुनिया का दूसरा सबसे शक्तिशाली राष्ट्र ,लेकिन ध्यानचंद को पद,पैसा और प्रतिष्ठा नहीं डिगा पाए। कहते हैं, देश और खेल को समर्पित ध्यानचंद ने हिटलर से दो टूक कहा कि मैं भारतीय हूं और सिर्फ भारत के लिए खेलूंगा। सचिन को क्रिके ट का भगवान मानने वाली आज की पीढ़ी संभव है ध्यानचंद से अपरचित हो,लेकिन यह वस्तुत: देश के प्रति उनका अतुलनीय और निरपेक्ष योगदान था। कहना न होगा कि क्रिकेट में बेमिसाल सचिन इसी बहाने अपने उन चंद विरोधियों की भी जबान बंद कर सकते हैं ,जो गाहे-बगाहे उनकी राष्ट्रीय निरपेक्षता और समर्पण पर सवाल उठाते रहे हैं। उन पर आरोप लगते रहे हैं कि वह सिर्फ अपने लिए खेलते हैं ऑस्ट्रेलियाई क्रि केटर सर डॉन ब्रेडमैन की सेंचुरी के कीर्तिमान की बराबरी करने पर इटली की कार कंपनी फिएट से गिफ्ट में मिली फेरारी कार का टैक्स बचाने की कोशिश रही हो या फिर साउथ अफ्रीका के दौरे के दौरान पोर्ट एलिजाबेथ में दूसरे टेस्ट मैच में बॉल टैम्परिंग की तस्वीर का कैमरे में कैद होना । टेस्ट मैच खेलने पर पाबंदी और या फिर ट्वेंटी-20 से बचने और आईपीएल जरूर खेलने के आरोप। यह देश के प्रति उनकी निरपेक्षता को साबित करने का बड़ा अवसर है। क्या, खिलाड़ी होने के नाते सचिन का यही खेल धर्म नहीं है। क्या खेल का धर्म देश को एक बड़े धर्मसंकट से बचाना नहीं है?

औरत खड़ी बाजार में


हिन्दुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। औरत की देह इस समय मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकिप्रय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। समय-समय पर देहव्यापार को कानूनी अधिकार देने की बातें इस देश में भी उठती रहती हैं। हर मामले में दुनिया की नकल करने पर आमादा हमारे लोग वैसे ही बनने पर उतारू हैं। जाहिर तौर पर यह संकट बहुत बड़ा है। ऐसा अधिकार देकर हम देह के बाजार को न सिर्फ कानूनी बना रहे होंगें वरन मानवता के विरूद्ध एक अपराध भी कर रहे होगें। हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद एक बार फिर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की बातचीत तेज हो गयी है।
यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि ‘‘मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।’’ प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।
दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्न बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमशरें के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमति था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्न- पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शिक्त दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।
बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्नी है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अिस्मता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अिस्मता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्न में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।
सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्नी की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रि या को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।
स्त्नी आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षति आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्नी को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बिच्चयों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्नी सही मायने में इस दौर में ज्यादा शिक्तशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शिक्त का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्नी पर मुग्ध बाजार उसकी शिक्त तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पिब्लसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समङो जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते हैं।
संजय द्विवेदी: साभार-विस्फोट डॉट कॉम

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

महाकौशल में नक्सली उत्पात


वनभूमि को लेकर महाकौशल के चार जिलों की कहानी भी बघेलखंड से अलग नहीं है । यहां डिण्डोरी, मंडला, बालाघाट और सिवनी में सरकार के मुताबिक नक्सली की पैठ मजबूत हुई है। पूरे मध्यप्रदेश में बालाघाट की स्थिति सबसे संवेदनशील हैं। यहां नक्सली कितने असरदार हैं 1997 में परिवहन मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। सरकार के साथ आदिवासियों की जंगल के लिए लड़ाई यूं तो 1860 से चल रही है। वनाश्रित समुदाय जंगलों में वनोपज, निस्तार और चराई पर अधिकार चाहता है, वो जंगल से जीने के लिए न्यूनतम संसाधनों की मांग करता है, जबकि वन प्रबंधन इसे जंगलों पर बोझ मानता है। लिहाजा संघर्ष जारी है। याद करें, मंडला -बालाघाट में आदिवासियों और वनविभाग के संघर्ष ने 1990 में तब खतरनाक मोड़ ले लिया था । जब नक्सली इस क्षेत्र में दाखिल हुए। नक्सली अपनी गतिविधियों का विस्तार चाहते थे लिहाजा उन्होंने वनवासियों के साथ मिलकर 30 मई को कान्हा नेशनल पार्क में आग लगा दी। 15 दिन तक कान्हा के पांचों वनपरिक्षेत्र कान्हा, किसली(सूपखार), भैंसानघाट, और मुक्की जलते रहे। कान्हा की आग दुनियाभर में चर्चित हुई । इस वारदात के बाद वनभूमि और वनोपज पर वनाश्रित समुदाय को अधिकार दिए जाने की चर्चा और मांग गंभीरता से शुरू हुइ। अतिक्रमणकारियों का एक और सर्वे शुरू। जनवरी 1994 तक मंडला -डिण्डोरी में 20105 , बालाघाट में 6254 और सिवनी में 486 अतिक्र ामक पाए गए। मंडला डिण्डोरी में 12778 और सिवनी में 117 लोगों को और बालाघाट में 3622 को वैध मानते हुए प्रदेश सरकार ने भारत शासन की अनुमति के लिए प्रस्ताव बनाकर भेजा दिया,लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। 1996 में आए सुप्रीमकोर्ट के आदेश के चलते सारी कार्यवाही थम गई। आदिवासी समुदाय एक बार फिर ठग लिया गया। बार -बार की इस हार और वन विभाग से लगातार मिल रहे विस्थापन ने उन्हे आंदोलित कर दिया। ऐसे में यह लोग नक्सलियों द्वारा आसानी से बहकाए जा सकते थे, यह बात नक्सली अच्छे से समझते थे, इधर राज्य सरकार भी केंद्र से वनाश्रितों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटाने के लिए कानून बनाने की मांग कर रही थी क्योंकि आदिवासी हमेशा से चाहते थे कि उनके क्षेत्र का प्रबंधन उनकी आवश्यक्ताओं और परम्पराओं के अनुसार हो, इसी भावना को लेकर 1996 में पेसा कानून लाया गया। संयुक्त मध्यप्रदेश भारत का वो पहला राज्य था जिसने इस कानून को गंभीरता से समझा और इसे अमली जामा पहनाने का काम शुरू किया लेकिन सारी कवायद अधूरी ही छूट गई क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के चलते बीच में कई समस्याएं सामने आ गईं। पेसा कानून पर ही यदि गंभीरता से अमल हो जाता तो समस्या इतनी बड़ी नहीं होती। पेसा कानून के पालन में दुश्वारियों के चलते एक नए कानून को बनाने की मांग उठने लगी जो वनाश्रित समुदायों को उनके पारम्परिक अधिकार लौटा सके। यूपीए सरकार ने आते ही इस दिशा में प्रयास शुरू किए। फलत: अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून 2006 के रूप में हमारे सामने आया, लेकिन तब तक वन विभाग पूरे प्रदेश से 49577 काबिजों को बेदकल कर चुका था। इसके अलावा 12111 कृषि और 376 आवासीय पट्टों को भी निरस्त किया जा चुका था। आज भी इस कानून के तहत सर्वाधिक पट्टे मध्यप्रदेश में ही निरस्त हुए हैं। इतने बड़े पैमाने पर हुई बेदखली की कार्यवाही ने आदिवासियों को और आक्र ोशित कर दिया। अपने खेत- खलिहान और पारम्परिक धंधों से वंचित आदिवासी समुदाय पेट पालने के लिए आज या तो शहरों की ओर पलायन कर रहा है या फिर अपने क्षेत्रों में मजदूरी करने को मजबूर हो चुका है। ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाले काम का ही उसे एकमात्र आसरा है, लेकिन प्रदेश में मनरेगा में भी कितना भ्रष्टाचार है यह सभी जानते हैं। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बालाघाट, मंडला, डिण्डोरी, शहडोल, उमरिया और सीधी में मनरेगा के तहत भारी गड़बिड़यां होने की बात कही है। इन जिलों में अपनी रिपोर्ट में सीएजी ने मस्टररोल की विश्वसनियता पर ही कई सवाल उठाए क्योंकि अधिकांश स्थानों पर मस्टर रोल कार्यस्थल से गायब मिले। मस्टररोल को जारी करने की तिथि उस पर नहीं मिली। कार्यो का कोड नम्बर तथा जॉबकार्ड नम्बर भी मस्टररोल पर अंकित नहीं किए गए, श्रमिकों की उम्र और गांव का नाम अधिकांश जगह नहीं मिला। भुगतान के प्रमाण पत्रों के अभिलेख नहीं मिल। मस्टररोल में कांट-छांट। ओवर राइिटंग तथा सफेदी लगाकर अंक बदलने के मामले भी सामने आए। डिण्डोरी में तो नरेगा के अंतर्गत नाबालिगों को भी रोजगार दे दिया गया। सीधी की सरई ग्राम पंचायत में ग्रामीण यांत्रिक विभाग के कार्यों में तो काम होने से पहले ही मजदूरों को भुगतान करने का मामला सामने आया । सीएजी ने ऑडिट अवधि में योजना मद की राशि जनपद पंचायतों द्वारा ग्राम पंचायतों को एक से आठ मे महीने की अनावश्यक देरी से जारी करने पर भी आपत्तिा उठाई है। नरेगा में खुले आम चल रही गड़बिड़यों का अंदाजा मध्यप्रदेश राज्य रोजगार गारंटी परिषद् की शिकायत शाखा द्वारा तैयार रिपोर्ट से लगता है कि अब तक मनरेगा में गड़बड़ियों के चलते पूरे प्रदेश में 113 सरपंच अपनी कुर्सी गंवा चुके तथा 9 सरपंचों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। इसके अलावा 502 पंचायत सचिवों के खिलाफ कार्यवाही की गई है। साथ ही 140 सब इंजीनियर और 68 जनपद सीईओ के खिलाफ भी कार्यवाही हुई है जिसमें से 14 को निलंबित भी किया जा चुका है। आदिवासी समुदाय अपनी जमीन तथा पारम्परिक उद्योगधंधों से उखड़ चुके हैं, विकास की दौड़ में जनजातियों की जीविका के आधार जल जंगल और जमीन की अंधाधुंध लूट के चलते जनजातियों को तीव्र गति से हाशिए पर ला खड़ा किया है। आज़ाद भारत में आदिवासी अपनी उपेक्षा से दुखी हैं। वो शोषण की शिकायत करता है, ऑटोनामी का नारा देता है,वर्तमान को वे खण्ड खण्ड में देखने का आदि हो गया है, भविष्य का उसके पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। शायद आदिवासी हीनभावना का शिकार हो गया है। इसीलिए वर्तमान व्यवस्था के प्रति जनजातियों में घोर असंतोष है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के चमत्कारिक उदय और नक्सलवाद के प्रति बढ़ते रूझान के पीछे यही कारण है, लेकिन आज भी हम तीन तरीकों से इस समस्या से निपट सकते है, पहला आदिवासियों को उनकी भूमि पर अधिकार लौटाकर हम ऐतिहासिक अन्याय की क्षमायाचना कर सकते है ं। यह अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्ययता) कानून के जरिए संभव है। दूसरा आदिवासियों को उनके क्षेत्नों की व्यवस्था उनके हाथों में सौंप कर, ताकि वे अपना विकास अपने तरीकों से कर सके यह पेसा कानून के तहत संभव है और तीसरा जनजातिय क्षेत्नों में मनरेगा का ईमानदारी से संचालन कर हम उन्हे तत्काल राहत दे सकते हैं, इन तीनों का एक साथ प्रयोग कर हम नक्सलवाद की समस्या से निपट सकते हैं। बस इसके लिए इमानदार प्रशासन की आवश्यकता है।

बघेलखंड में नक्सली आहट


योजना आयोग ने नक्सल प्रभावित इलाकों का सामाजिक आर्थिक अध्ययन कर एक एक शोध पूर्ण रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह से आदिवासियों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग के हाथों से जीवन निर्वाह के संसाधन छीने गए हैं। सरकारी योजनाएं कहां विफल हुईं। मध्यप्रदेश में बघेलखंड और महाकौशल के के आठ जिले आदिवासी बहुल्य हैं। जंगल,वनोपज और खेती ही आजीविका का साधन। दशकों से हुई सरकारी कार्यवाहियों में उन्हें वन बेदखली के सिवाय कुछ नहीं मिला। बघेलखंड में इसकी शुरूआत 1937 में हुई। जब तत्कालीन रीवा रियासत ने 8 फरवरी 1937 को एक आदेश पारित कर, नगरीय सीमा तथा ग्राम की निजी भूमि या केंटूनमेंट बोर्ड की भूमि को छोड़कर शेष सभी भूमि को रीवा फॉरेस्ट एक्ट की धारा 29 के तहत वनभूमि मान ली गई। यह जमीन तब राजस्व अभिलेखों में बड़े झाड़ का जंगल, छोटे झाड़ का जंगल, पहाड़ ,चट्टान, चरनोई, घास मैदान, जंगलखुर्द और जंगलात मदों में दर्ज की गई। इससे पहले ये जमीनें गांव की सामुदायिक भूमि हुआ करती थीं। जिन पर सामाजिक रीति रिवाजों के तहत आम निस्तार होता था। पूरे समाज की सामाजिक आर्थिक गतिविधियां संचालित होती थीं। 1947 में भारत की आजादी के बाद भूमिहीनों को जमीनें देने के इरादे से स्वामित्वाधिकार उन्मूलन अधिनियम के तहत मालगुजार, जमीदार, और जागीरदारी तोड़कर भूअजर्न कर लिया गया। इससे पहले की राजस्व विभाग कुछ करता वन विभाग ने रीवा स्टेट के आदेश को मानते हुए 1950 में सर्वे और डिमार्केशन का काम शुरू कर दिया संविधान लागू होने के पश्चात अनुच्छेद 13 के तहत रीवा राजदरबार द्वारा की गई कार्यवाहियों का परीक्षण करने की बजाए, 1954 में मध्यप्रांत की सरकार तथा राज्य पुनर्गठन के पश्चात 1958 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचना का प्रकाशन कर निस्तार प्रयोजन की सामूदायिक भूमि को संरक्षित वनभूमि बना दिया गया। सीधी और अविभाजित शहडोल (शहडोल,उमरिया,अनूपपुर सहित) में भी 1970-71 तक जमीनों का सर्वे और डिमार्केशन होता रहा। 1950 से 1972 के बीच चार जिलों के हजारों गांव की लाखों हैक्टेयर भूमि शामिल की गई। जिसमें पूर्वी सीधी में 793 गांव की कुल 273428.243 हेक्टेयर भूमि, पश्चिमी सीधी की 1083 गांव की 142364.043 हेक्टेयर भूमि , उत्तर शहडोल के 621 गांव के 113700.500 हेक्टेयर भूमि दक्षिण शहडोल के 975 गांव की 132198.000 हेक्टेयर भूमि तथा उमरिया के 574 गांव की 94032.000 हेक्टेयर जमीने शामिल थीं। वन विभाग यहीं तक सीमति नहीं रहा। उसने इन जिलों की हजारों हेक्टेयर निजी भूमि भी बिना मुआवजे के वर्किग प्लान में शामिल कर ली। पूर्वी सीधी में करीब 360.052 हेक्टेयर, पश्चिमी सीधी में 583.867, उत्तर शहडोल में 1754.346, दक्षिण शहडोल में 889.017 हेक्टेयर, उमरिया में 1180.167 हेक्टेयर तथा अनूपपुर में 1235.466 हेक्टेयर निजी भूमि भी वन विभाग ने अपने अधिकार में ले ली। किसान जहां इन जमीनों की खेती से वंचित हो गए वहीं वनोपज से होने वाली आय भी उनके हाथ से चली गई। सर्वे के बाद इन जिलों में करीब 414950.821 हेक्टेयर भूमि ही संरक्षित वन के योग्य नहीं पाई गई।क्योंकि यहां या तो खेती हो रही थी या फिर ये सघन आबादी के क्षेत्र थे। यह गैर उपयोगी जमीन को वन विभाग ने राजस्व विभाग को सौंप दी । भूमि हस्तांतरण की इस प्रक्रिया में कई ऐसे भूखंड छूट गए जिन्हें वन विभाग ने अपने रिकार्ड से नहीं हटाया और ये भूखंड राजस्व के रिकार्ड में भी दर्ज हो गए। नतीजतन नई समस्याएं खड़ी हो गईं। और इस तरह से पुश्तैनी तौर पर इन लाखों एकड़ भूखंड से पेट पाल रहे लाखों लोग सरकारी भाषा में अतिक्रमणकारी कहलाए जाने लगे। उन पर बेदखली की कार्यवाही शुरू हो गई। सियासी रोटियों को सेकने का सिलसिला भी शुरू हो गया। 1970 के बाद पट्टे देने की बात चली। अब अतिक्रमणकारियों का सव्रे शुरू हुआ,लेकिन इससे पहले की पट्टे मिलते। वन संरक्षण अधिनियम 1980 आ गया और वन, राज्य सूची से हटाकर संवर्ती सूची का विषय बना दिया गया। केंद्र ने पुन: एक सव्रे की कवायद शुरू ही की थी कि 1996 की 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने टीएन गोधाबर्मन केस पर वन भूमि की व्याख्या कुछ इस तरह से कर दी कि जो भी जमीन किसी भी सरकारी रिकार्ड में संरक्षित या आरिक्षत वन रही हो उसे वनभूमि माना जाएगा, इस आदेश से तो मध्यप्रदेश के वनविभाग द्वारा बघेलखंड में की गई सारी कार्यवाहियों पर स्वीकृति की न्यायिक मुहर लग गई, फिर क्या था वन विभाग ने हजारों लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल करना शुरू किया जो अब भी जारी है।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

दिग्गीलीक्स में कितना दम ?



कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अर्से से एक खास किस्म के रणनीतिक आंदोलन की राह पर हैं। वह वक्त की नजाकत को भांपते हैं। छोटा सा धारदार बयान देते हैं या फिर जरा सी चुटकी लेते हैं। विपक्ष भौचक रह जाता है। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू होता है और विवाद खड़ा हो जाता है, लेकिन दिग्गीराजा की बयानबाजियों का सिलसिला थमता नहीं। वे हर बार एक नया मुद्दा उठाते हैं और बवाल खड़ा कर देते हैं। मध्यप्रदेश की राजनीति में मौजूदा सियासी तूफान इस तथ्य की ताजा मिसाल है मगर बावजूद इसके इस सवाल का जवाब अभी भी सिर्फ कयासों में है कि इसके पीछे आखिर उनका अंतत: अंतिम मंतव्य क्या हो सकता है? क्या निरंतर सुर्खियों में बने रहने का उनका यही सियासी अंदाज है? या फिर थोक वोट बैंक के लिए तुष्टीकरण कांग्रेस की पुख्ता रणनीति है? आखिर वो ऐसे मसले क्यों उठाते हैं ,जो विवाद की वजह बनें? यह तो तय है कि हिंदू संगठनों के खिलाफ मोर्चाबंदी का नेतृत्व दिग्विजय सिंह की राजनीति का स्थाई अंग बन गया है मगर सवाल यह है कि सियासी लिहाज से कांग्रेस के हक में इसके राजनैतिक नुकसान-नफे का पूर्वानुमान क्या है? भारी भ्रष्टाचार पर सिविल सोसायटी का दबाव,जानलेवा महंगाई उस पर आतंकी धमाकों के बीच चौतरफा घिरी कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार। बिहार के हाल के चुनावों में कांग्रेस की एतिहासिक पराजय। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में नए सिरे से जमीन तलाशती कांग्रेस और स्वयं दिग्गी के गृहराज्य मध्यप्रदेश में गुटीय राजनीति के चलते जमीन छोड़ती कांग्रेस के पास क्या इसके सिवाय अब और कोई रास्ता नहीं है कि वह मुंबई अटैक में बहे लहू से खुद को पुर्नजीवित करने की गुंजाइश तलाशे ?अगर ऐसा ही है तो यह रास्ता सीधे पातालपानी जैसी गहरी खाईं में खुलता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि देश के राष्ट्रवादी मुस्लिम सरहद पार से आए देश तोड़क आतंकवाद को सांप्रदायिकता की इस नई परिभाषा के रूप में स्वीकारेंगे?आतंकवाद को सांप्रदायिक रंग देने की इस कोशिश से कांग्रेस के पक्ष में अल्पसंख्यक भले ही एकजुट न हों लेकिन भाजपा के प्रति बहुसंख्यकों के रूझान को वॉकओवर जरूर मिलेगा। हिंदुत्व का हथियार हासिल करने को बेताब भाजपा के हाथ में यदि कांग्रेस ही रामबाण देना चाहती है तो फिर कहने को कुछ नहीं बचता है। इसमें शक नहीं कि सरसरी तौर पर कुछेक आतंकी मामलों में कथित हिंदू आतंकवाद के निशान मिले हैं। मगर तब तक ये सिर्फ आरोपों के ही धब्बे हैं, जब तक कि अदालत इसे अपराध नहीं मान लेती है। सच तो यह है कि आतंकवाद की आड़ में हाल ही में राजनीति का जैसा विचित्र सामने आया है, वह भयभीत बहुत करता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अस्मिता के प्रतीक संसद भवन का हमलावर अफजल गुरू अगर आज भी सरकारी मेहमान हैऔर ढाई साल के अंदर दूसरा मुंबई अटैक के बाद भी कसाब की सरकारी खातिरदारी चल रही है तो सचमुच संसदीय राजनीति खतरे में है। यही सर्वोच्च अदालत की पीड़ा है और यही देश की फिक्र भी है। अब तो तकरीबन यह भी तय हो चुका है कि देशी सियासत के बूते परदेशी आतंक से नहीं निपटा जा सकता है। नतीजतन हम मदद के लिए भारत दौरे पर आईं अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का मुह ताक रहे हैं। कट्टरता से लड़ने में परहेज कहां? लेकिन इससे राजनीतिक कुटिलता से नहीं निपटा जा सकता है।
सच यह भी है कि प्रदेश में गुटीय राजनीति की शिकार होकर पहले से ही निर्बल हो चुकी कांग्रेस वस्तुत: भाजपा को यूं नहीं घेर सकती है क्योंकि राज्य में भाजपा सरकार की स्वार्णिम मध्यप्रदेश की शानदार मार्केटिंग चमक रही है। आरएसएस के रणनीतिकारों ने अपने ही घटक दलों को सदन के बाहर सड़क पर एक मजबूत विपक्ष के रूप में खड़ा कर दिया है। जो जरूरत पड़ने पर जनभावनाओं के पोषण के लिए सरकार का विरोध करता है और आवश्यक हुआ तो सरकार के बचाव में ढाल बनकर खड़ा भी हो जाता है। मिसाल के तौर पर 2 लाख किसानों के साथ 48 घंटे तक राजधानी भोपाल को बंधक बनाए रखने के पीछे आखिर कौन था? आशय यह कि भाजपा की परस्पर नूरा कुश्ती नायाब है। राज्य में सत्ता तो भाजपा की है लेकिन विपक्ष में कांग्रेस नहीं है? गौर से देखें तो एक बड़ी रणनीति के तहत भाजपा के अनुषंगी दल ही विपक्ष की भूमिका में हैं। ऐसे में सरकार की घेराबंदी के लिए कांग्रेस को गैर सांप्रदायिक राजनीति की रणनीति ही अपनानी होगी। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में जन सरोकार से जुड़े मुद्दे नहीं हैं। भूख, भय और भयंकर गरीबी। बिजली-पानी जैसे बुनियादी मसले अभी भी जिंदा हैं। यह भी सही है कि इधर कुछ अर्से से राज्य के हर क्षेत्र में सत्तारूढ़ भाजपा का भी स्लखन हुआ है लेकिन गैरहाजिर विपक्ष के कारण सरकारी नाकामियां सामने नहीं आने पाई हैं। बेहतर हो कांग्रेस सतही सियासी शिगूफे के बजाय व्यापक जनहित से जुड़े मामलों में स्थगन के प्रस्ताव लाए। अन्यथा बेवजह न तो विधानसभा में गतिरोध का कोई अर्थ है और न तो प्रदेशव्यापी धरनों का कोई औचित्य है। कांग्रेस के सिपहसालारों को यह समझना चाहिए कि इस जुबानी जंग से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है? मगर इससे पहले स्वयं प्रदेश कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि बुनियादी मुद्दों से असली जंग के लिए उसके पास समर्पित गैंग कहां है? कुल मिलाकर कांग्रेस को अपना गिरेबान देखना चाहिए।

मध्यप्रदेश में खत्म होते गांव


दस सालों में मप्र के करीब सवा फीसदी लोग गांवों से निकलकर शहरों में बस गए हैं। प्रदेश में शहरों की संख्या में 82 का इजाफा हुआ है, जबकि 490 गांव कम हो गए। हालांकि राज्य के अब भी सवा पांच करोड़ (72.37 फीसदी) लोग गांवों में ही निवास करते हैं और शहरों में दो करोड़ लोग रहते हैं। मप्र के संबंध में जनगणना 2011 के अंतरिम आंकड़े ऐसा ही कहते हैं। प्रदेश की एक तिहाई शहरी आबादी (करीब 70 लाख) चार जिलों इंदौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में रहती है। इसमें इंदौर शीर्ष पर है जहां 24 लाख लोग शहरी हैं। दूसरे नंबर पर भोपाल जिला है, जहां 19 लाख लोग शहरों में रहते हैं। ग्रामीण आबादी में रीवा, धार और सतना जिले शीर्ष तीन पर स्थानों पर हैं। कुछ गांव शहरों में परिविर्तत हो गए। उदाहरण के तौर पर जैसे भोपाल जुड़ा कोलार क्षेत्न पहले गांव कहलाता था लेकिन अब नगर पालिका क्षेत्न में आने के कारण वह शहर में तब्दील हो गया। कई गांव बांध इत्यादि परियोजनाओं के कारण डूब में आ गए। उदाहरण के तौर पर जैसे इंदिरा सागर परियोजना में 156 और ओंकारेश्वर परियोजना में 5 गांव डूब गए। पलायन के कारण ग्रामीण क्षेत्न के लोग शहरों में बस गए। इससे शहरों में आबादी बढ़ गई कुछ गांव शहरी क्षेत्न की परिभाषा में शामिल हो गए। इससे अपने आप यह आबादी शहरी आबादी में जुड़ गई। ऐसे क्षेत्न जहां नगरपालिका, नगर निगम, छावनी क्षेत्न हो या फिर वह शहर के रूप में अधिसूचित हो, शहर कहलाते हैं। इनके अलावा वे स्थान भी शहर कहलाते हैं, जो इन तीन मानदंडों को पूरा करते हों : न्यूनतम पांच हजार की आबादी, वहां के 75 फीसदी कामकाजी पुरु ष गैर कृषि कार्यो में संलगन हों और जनसंख्या का घनत्व न्यूनतम 400 वर्ग किमी हो।

एमपी से बड़े सिर्फ16 देश

आबादी के लिहाज से दुनिया में मध्यप्रदेश से बड़े केवल 16 देश हैं। जनगणना-2011 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश की जनसंख्या 7,25, 97, 565 हो चुकी है। राज्य के जनगणना निदेशक सचिन सिन्हा ने मंगलवार को ताजा जनगणना के अस्थाई आंकड़े जारी करते हुए बताया कि प्रदेश की कुल आबादी में 3,76,12, 920 पुरूष और 3,49,84,645 महिलाएं हैं। एक दशक में प्रदेश की ग्रामीण आबादी में 18.4 प्रतिशत और शहरी आबादी में 25.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्न में एक हजार की आबादी पर 936 और शहरी आबादी में 916 महिलाएं हैं। ये हमसे छोटे: मध्यप्रदेश की आबादी थाईलैंड, फ्रांस, इटली, ब्रिटेन, म्यांमार, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से अधिक और ईरान, टर्की, जर्मनी से थोड़ी ही कम है। राज्य की जनसंख्या आस्ट्रेलिया, श्रीलंका और अफगानिस्तान की संयुक्त आबादी से भी अधिक है। दशकभर में 81 लाख बढ़ी शहरी आबादी राज्य की शहरी आबादी में एक दशक में 41 लाख की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान ग्रामीण आबादी में 81.6 लाख की वृद्धि हुई है।

सरकार ने माना 30 फीसदी अफसर दागी


राज्य प्रशासनिक सेवा (राप्रसे) के 30 फीसदी अधिकारी जांच के दायरे में है। इनके खिलाफ लोकायुक्त, आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो और विभागीय जांच चल रही है। मुख्यमंत्नी शिवराज सिंह चौहान ने बीजेपी विधायक विश्वास सारंग के प्रश्न पर यह जानकारी दी। प्रदेश में राप्रसे के 667 अधिकारी पदस्थ हैं। इसमें से 198 अधिकारी भ्रष्टाचार, अनियमतिताएं व पद का दुरु पयोग करने के मामलों में फंसे हैं। खास बात यह है कि इनमें से मात्न 2 अधिकारी ही निलंबित हुए हैं। 14 अधिकारी ऐसे हैं, जिनके विरु द्ध जांच चल रही है, लेकिन वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं। पिछले दो साल में 97 अधिकारियों के खिलाफ जांच में आरोप सही पाए गए।
विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक भोपाल नगर निगम आयुक्त मनीष सिंह के खिलाफ लोकायुक्त संगठन में पद का दुरु पयोग करने के छह प्रकरण दर्ज हैं। इनमें से चार प्रकरणों में लोकायुक्त ने निगम आयुक्त से ही जानकारी मांगी है। शेष दो प्रकरणों में शासन से जानकारी चाही है। सारंग ने राज्य पुलिस सेवा (रापुसे) के अधिकारियों की जानकारी भी मांगी थी, लेकिन मुख्यमंत्नी ने कहा कि इन अधिकारियों की जानकारी एकत्न की जा रही है। उधर, राज्य प्रशासनिक सेवा संघ के अध्यक्ष उमर फारूख खट्टानी का कहना है कि कुछ ऐसे आरोप लगते है, जिसमें आरोप सिद्ध हो सकता है, लेकिन शिकायतें होना अब आम बात हो गई है। अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर तब तक उंगली नहीं उठाई जा सकती है, जब तक उनके खिलाफ आरोप सिद्ध नहीं हो जाता। अधिकतर मामलों में आरोप सिद्ध नहीं हो पाते है। जांच की स्थिति: 132 के खिलाफ विभागीय जांच चल रही है। 46 अधिकारी लोकायुक्त जांच के दायरे में हैं। 20 आर्थिक अपराध के मामलों फंसे हैं। 14 अधिकारी ऐसे है, जिनके खिलाफ जांच तो चल रही है, लेकिन वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं।

प्रदेश में घट रही हैं लड़कियां


जनगणना के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बिच्चयों के मामले में प्रदेश में हालात अच्छे नहीं है। प्रदेश में 0 से 6 साल के बच्चों में लिंगानुपात में पिछली जनगणना के मुकाबले 20 अंकों की गिरावट आई है। शहरी क्षेत्नों में तो यह अनुपात 897 पर पहुंच गया है। प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ है, जब शहरों में प्रति हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या का अनुपात 900 से कम हुआ है। मंगलवार को जारी मप्र के 2011 की जनगणना के अंतरिम आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में लिंगानुपात यानी प्रति हजार पुरु षों पर महिलाओं की संख्या 919 से बढ़कर 930 हो गई है। लेकिन छोटे बच्चों में लिंगानुपात 932 से घटकर 912 पहुंच गया है। इसमें इंदौर जैसे शुद्ध शहरी मानिसकता वाले नगर निगम क्षेत्न में भी बच्चों का लिंगानुपात बेहद कम (887) है। इस मामले में यह केवल ग्वालियर (827) रीवा (846) और सतना (873) से ही बेहतर है। अभी तक प्रदेश में चंबल क्षेत्न ही कन्या भ्रूण हत्याओं के लिए कुख्यात रहा है, लेकिन छोटे बच्चों में लिंगानुपात में पूरे प्रदेश में कमोबेश समान रूप से कमी हुई है। इसका भविष्य में लिंगानुपात पर असर पड़ना तय माना जा रहा है। लिंगानुपात: प्रदेश का औसत - 930, राज्य में 0-6 साल के बच्चों का शहरी क्षेत्न का औसत - 897, इंदौर - 887, ग्वालियर - 827, रीवा - 846, सतना - 873 .और भोपाल शहर: लिंगानुपात - 911 0-6 साल के 1000 लड़कों पर 917 लड़कियां।

दिग्गी राजा के राज?


मुंबई। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्नी और अब कांग्रेस के महासचिव की जिम्मेदारी निभा रहे दिग्विजय सिंह इन दिनों अपने राजनीतिक बयानों, कथनों और चुटकियों से एक तरह का आंदोलन छेडे हुए हैं। वे हर मुद्दे पर बोलते हैं, बहुत ही संक्षिप्त बोलते हैं; लेकिन उससे विवाद बडा खडा कर देते हैं। आखिरवे ऐसे ही मुद्दे क्यों उठाते हैं, जिनसे विवाद पैदा होता है? यह जानने के लिए हमें दिग्विजय की पृष्ठभूमि में जाना होगा। दिग्विजय सिंह दरअसल गुना जिले के राघोगढ रियासत में पैदा हुए राजपूत हैं, लेकिन अब उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है। एक ईसाई होकर इस तरह कांग्रेस की ओर से हिंदू संगठनों के खिलाफ मोर्चा खोलना उनकी राजनीति का ही एक अंग है। 22 बरस की ही उम्र में राजनीति में उतरनेवाले दिग्विजय 1977 में ही कांग्रेस की ओर से विधायक बन गए थे। वे अगले तीन बरसों में ही मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्नी बन गए और 1985 में वे मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी बन गए। सन 1984 और 1991 में सांसद बने और 1993 और फिर 1998 में वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्नी रहे। मध्य प्रदेश में उनका कार्यकाल भी काफी विवादों से भरा रहा। उनका पहला सत्न तो राज्य को विकास की राह पर बडी तेजी से आगे ले गया, लेकिन दूसरे सत्न में उनकी सरकार भ्रष्टाचार और धांधलियों के आरोपों से घिर गई और 2003 में वे चुनाव हार गए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि अगर वे यह चुनाव हार जाते हैं तो अगले दस बरस तक कोई चुनाव नहीं लडेंगे, और दिग्विजय आज तक उस वादे को निभा रहे हैं। दिग्विजय पर 2001 में एक शराब व्यापारी से दस करोड रु पए की रिश्वत लेने का आरोप है। झबुआ में हुए नन बलात्कार पर भी उन्होंने हिंदू संगठन पर आरोप लगाया था, जो विवाद का केंद्र बना था। 2004 में इंदौर के एक भूमि घोटाले से भी उनका नाम जुडा था और उनके खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। 2009 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्नी मायावती के खिलाफ टिप्पणी करने के खिलाफ उन पर मामला दर्ज किया गया था। 2009 में ही इंदौर के मॉल निर्माण में धांधली का मामला सामने आया और उसमें भी दिग्विजय का नाम था। यहां भी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य की आर्थिक अपराध शाखा को दिग्विजय पर धांधलियों के लिए मामला दर्ज करने का निर्देश दिया। दिग्विजय का एक पहलू यह है कि वे हमेशा हिंदू संगठनों को आडे हाथों लेते रहते हैं, जैसे अब यही उनका मिशन हो गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि हमेशा उनके निशाने पर रहते हैं और वे इन दिनों उन्हें तथाकथित हिंदू आतंकवाद के लिए जिम्मेदार भी ठहराते रहते हैं। दूसरी ओर वे सिमी जैसे मुस्लिम संगठन पर हमेशा से उंगली उठाते आ रहे हैं। 26 नवंबर 2008 को मुंबई हमले में महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के मुखिया हेमंत करकरे की मौत पर उठे सवालों को हवा देते हुए उन्होंने कह दिया था कि करकरे ने उन्हें अपनी मौत से पहले फोन पर बताया था कि उनकी जान को हिंदू समूहों से खतरा है। यह विवाद खूब उछला, बहुत ‘तू-तू, मैं-मैं’ भी हुई; और आखिर में दिग्विजय ने साबित किया कि करकरे ने उन्हें फोन किया था। अब सवाल यह है कि क्या वे सबूतों के आधार पर राजनीति करते हैं या अपने दो टूक बयान देते हैं या फिर यूं ही कुछ भी बोलते चले जाते हैं और विवाद खडे करते हैं? वे कहते हैं कि संघ भारत में कई आतंकवादी हमलों के पीछे जिम्मेदार है और अजमेर धमाके का आरोपी सुनील जोशी इसका सबूत है, जिसकी अब हत्या कर दी गई है; क्योंकि वह संघ के बारे में बहुत कुछ जान गया था। यह दूसरी बात है कि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने दिग्विजय पर ही इल्जाम लगा दिया कि सुनील जोशी की हत्या के पीछे उनका हाथ है और मुङो फंसाने के पीछे भी उन्हीं का हाथ है। दूसरी ओर उन पर मुस्लिम समुदाय की तरफदारी करने का आरोप भी लगाया जाता है, हालांकि उन्होंने सिमी को हमेशा अपना निशाना बनाया है और एक बार अपने बयान में कहा है कि बजरंग दल भी सिमी जैसा है। राजनीतिक बयानबाजी के धुरंधर खिलाडी दिग्विजय कांग्रेस के पक्ष से जिस तरह की भूमिका निभा रहे हैं वह शायद कांग्रेस की राजनीति का हिस्सा हो, क्योंकि कांग्रेस ने कभी भी दिग्विजय के किसी भी बयान पर आपित्त नहीं जताई है यानी उसे दिग्विजय की जरूरत है, जो अपने ही खास अंदाज में राजनीति का एक मोर्चा संभाले हुए हैं। सन 2012 में उत्तर प्रदेश में होनेवाले विधानसभा चुनावों का प्रभारी उन्हें ही बनाया गया है यानी दिग्विजय अब मायावती से दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में उतरनेवाले हैं।
शकील अहमद:साभार जोश18(मनी डॉट कॉम)

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

आखिर कहां जाएं बेटियां


देश के अन्य राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश नाबालिगों विशेषकर लिडकयों के शोषण के मामले में अव्वल बनकर उभरा है। यह खुलासा राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ओर से जारी ताजा आंकडों से हुआ है, जिसके अनुसार मध्यप्रदेश में नाबालिगों के साथ 4646 आपराधिक वारदातें हुई, जो देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक है। इसमें भी प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाला इंदौर 337 मामलों के साथ पहले स्थान पर रहा है। इसी प्रकार जबलपुर में 257 और भोपाल में 127 मामले सामने आए हैं। इन आपराधिक घटनाओं में भी मासूम बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएं ज्यादा हुई हैं। एनसीआरबी के ये आंकडे मध्यप्रदेश को शर्मसार करने के लिए काफी हैं। बच्चों विशेषकर नाबालिग लिडकयों से बलात्कार के मामले में मध्यप्रदेश ‘नंबर वन’ है, प्रदेश में 1071 नाबालिग बिच्चयों के साथ बलात्कार की घटनाएं हुईं, जो पूरे देश में हुई वारदातों का 20 प्रतिशत है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, नाबालिग बिच्चयों के साथ बलात्कार के मामले में मध्यप्रदेश के बाद उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र का नंबर है, जहां क्र मश: 625 और 612 घटनाएं दर्ज हुई। बच्चों के साथ हो रहे अत्याचार के मामले में भोपाल तीसरे नंबर पर है। दिल्ली और मुंबई के बाद भोपाल में बच्चों के साथ सबसे ज्यादा बलात्कार की घटनाएं हुईं। दिल्ली में बलात्कार की 258, मुंबई में 85 और भोपाल में 77 घटनाएं हुई। इसी प्रकार, यदि बच्चों की हत्याओं की बात करें तो मध्यप्रदेश में 115 बच्चों की हत्याएं हुई, जबकि उत्तरप्रदेश में 363, महाराष्ट्र में 181 और बिहार में 126 हत्याएं हुईं। इस मामले में भोपाल छठे स्थान पर है, जहां बाल हत्या के सात प्रकरण दर्ज किए गए। दिल्ली 65 बाल हत्याओं के साथ पहले और मुंबई 16 बाल हत्याओं के साथ दूसरे नंबर पर है। बचपन बचाओ आंदोलन के प्रांतीय संयोजक डा. राघवेंद्र सिंह तोमर ने आरोप लगाया है कि प्रदेश में बाल व्यापार, बाल विवाह और बाल श्रम जैसी घटनाएं आए दिन अखबारों की सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन एनसीआरबी के आंकडों के मुताबिक मध्यप्रदेश में ऐसे अपराध नहीं के बराबर हैं। तोमर ने कहा कि ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में बच्चों को बेचने की मात्न एक घटना हुई और खरीदने की एक भी नहीं, जबकि प्रदेश के मंदसौर जिले में ही विभिन्न स्थानों से अपहृत कर देह व्यापार के लिए कुख्यात बांछडा जाति के लोगों को बेची गई एक से नौ वर्ष उम्र की 65 से अधिक बिच्चयों को मुक्त कराया गया है और इस मामले में 70 से अधिक व्यक्ति गिरफ्तार किए गए हैं। ये आंकडे एनसीआरबी की रिपोर्ट में शामिल क्यों नहीं किए गए? उन्होंने कहा कि रिपोर्ट के मुताबिक कि मध्यप्रदेश में बाल विवाह की एक भी घटना नहीं हुईं। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि ऐसे विवाह गुपचुप तरीके से होते हैं और ये मामले पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। मध्यप्रदेश में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जिनमें बच्चों का अपहरण कर न केवल उनकी खरीद-फरोख्त की गई, बल्कि उनसे देह-व्यापार जैसा अनैतिक कृत्य भी कराया गया। मंडला और बैतूल जैसे आदिवासी बाहुल्य क्षेत्नों की लिडकयों को नौकरी का झांसा देकर मुंबई, दिल्ली और गोवा जैसे शहरों में लाकर अनैतिक कृत्यों में धकेल दिया जाता है, वहीं लडकों का इस्तेमाल बाल श्रिमक के रु प में किया जाता है। महज आंकडों में सुधार को देखते हुए अमेरिका ने भी भारत को मानव तस्करी की निगरानी सूची से बाहर कर दिया है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है और देश से हर साल लगभग 60 हजार बच्चे गायब हो जाते हैं।

नादान मीडिया


मुंबई बम ब्लास्ट के असली सूत्रधार जहां कहीं भी होंगे,मध्य प्रदेश में सड़क से लेकर सदन तक चल रहे मौजूदा सियासी स्वांग पर ठहाके लगा रहे होंगे। क्या खूब नाटक है? किसी को मुंबई के कलेजे पर लगे जख्मों की फिक्र नहीं है। सबको फिक्र है तो सिर्फ सियासी रोटियों की। सबने देखा कैसे? उज्जैन और शाजापुर की सड़कों से सरेआम उठा बवंडर सोमवार को विधानसभा तक पहुंच गया। कांग्रेस के नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने सत्तारूढ़ भाजपा सरकार पर गुंडागर्दी का आरोप लगाया तो जवाब में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बयानवीर दिग्विजय सिंह पर राज्य में अराजकता फैलाने का आरोप लगाने से नहीं चूके। आरोप-प्रत्यारोप का यह खेल इससे पहले जिस तरह से हाथापाई पर आ चुका है,वह किसी से छिपा नहीं। सचमुच यह देश की एकता और अखंडता पर अटैक है ,मगर हमारे सत्ता भोगी सियासी झंडाबरदार इतने खुदगर्ज हैं कि संक ट की इस घड़ी में भी वे एक जुट होने को राजी नहीं हैं। इस नाजुक मौके पर भी इनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। राजनैतिक हित साधने की इस शह-मात में क्या सड़क और क्या सदन? सब एक समान है। सवाल यह है कि आखिर ये हीरोइक स्टोरियां गढ़ता कौन है? कुछ टीवी पत्रकारों के बीच घिरे दिग्विजय सिंह से सवाल पूछा जाता है कि क्या मुंबई सीरियल ब्लास्ट में आरएसएस का हाथ हो सकता है? सिर्फ 25 सेकंड की एक बाइट के लिए मीडिया को जवाब मिलता है,आशंका से इंकार नहीं । यहां गौरतलब है, यह शकनुमा सवाल किधर से आया है? क्या किसी भी दल के किसी भी पदाधिकारी से ऐसे किसी गंभीर मामले में ऐसा कोई सवाल बनता है? दिग्विजय आखिर हैं ,क्या? रॉ,एनआईए,सीबीआई,आईबी या फिर मुंबई पुलिस के डीजीपी? अब सतही तर्क यह है कि उन्होंने जो कहा वह मीडिया या तो समझ नहीं पाया या फिर वह, मीडिया को समझा नहीं पाए। कुल मिलाकर झगड़ा नासमझी का है। तकनीकी तौर पर यह सही है कि मीडिया ने जो खबर चलाई वैसा दिग्गी ने कहा नहीं ,लेकिन क्या मीडिया को अब यह कहने का हक है कि उसने वही खबर बनाई जो दिग्विजय सिंह कहना चाहते थे। उन्होंने क्या कहा यह महत्वपूर्ण था न कि यह कि वह क्या कहना चाहते थे? सच तो यह है कि अगर सियासत का कोई धर्म नहीं है तो मीडिया की भी कोई आचार संहिता नहीं है। उसमें नैतिकता और जवाबदेही का बोध बड़ी तेजी के साथ तिरोहित हो रहा है। सामाजिक सरोकार कब के पीछे छूट चुके हैं। मुर्दो पर कैमरा लगाकर स्माइल प्लीज बोलने वाले पत्रकारों की बढ़ती नौसिखिया जमात की व्यावहारिक समझ महज इतनी ही है कि सबसे बेहतर पोज लेने की काल्पनिक ललक में ही उन्हे टीआरपी की असली उछाल दिखता है। क्या ऐसा गैर जिम्मेदाराना बर्ताव कर मीडिया बड़ी तेजी के साथ स्वयं का भरोसा नहीं खो रहा है? ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ठीक ही तो कहते हैं कि टीवी मीडिया नान इश्यू को इश्यू बना रहा है। मसलन ऐश्वर्या राय का गर्भवती होना न तो देश की समस्या है और नाही संकट मगर बावजूद इसके मीडिया का फोकस इसी के इर्द-गिर्द स्थिर हो जाता है। कहना न होगा कि आज अगर थूक कर चाटने की सियासी फितरतअपडेट खबरों की शक्ल में मीडिया का स्थाई चरित्र बनती जा रही है। तो यह खांटी किस्म के सियासतदारों की कुटिल कूटनीतिक कुशलता है। असल में वे जल्दबाज और गैर जिम्मेदार मीडिया की इस कमजोर नासमझी को बेहतर समझते हैं कि मीडिया उनके मंतव्य को अपने ताने बाने में बुनकर वही अर्थ निकालेगा जो वह कहना तो चाहते हैं पर नहीं कह कर भी सब कुछ कह देते हैं। और अगर ऐसे में नेताजी पलट गए तो मीडिया के पास पलट कर जवाब देने के लिए आखिर कौन सा मुंह बचेगा? यह भी एक सवाल है।

सोमवार, 18 जुलाई 2011

आया सावन झूम के..


आधी आबादी के दर्द का दस्तावेज


महिलाओं से सम्बंधित संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि करीब 35 प्रतिशत भारतीय महिलाएं अपने जीवनसाथी के हाथों शारीरिक हिंसा की शिकार होती हैं जबकि करीब 40 फीसदी पुरु ष और महिलाओं का मानना है कि पुरु ष द्वारा पत्नी को पीटा जाना ‘तर्कसंगत’ है। राजधानी में औपचारिक रूप से जारी ‘प्रोग्रेस ऑफ द वर्ल्ड वूमन’ रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र की इकाई यूएन वूमन ने चौंकाने वाला यह खुलासा किया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि करीब 10 प्रतिशत महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हैं। महिलाओं के बारे में यह सर्वेक्षण साक्षी नामक संगठन ने किया है। रिपोर्ट के मुताबिक सर्वेक्षण की प्रक्रि या में शामिल जिला, उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के 109 न्यायाधीशों ने पाया कि 68 फीसदी लोग ऐसा मानते हैं कि उकसाने वाले वस्त्न पहनने की वजह से महिलाएं दुष्कर्म का शिकार बनती हैं। रिपोर्ट में महिलाओं के कामकाज के क्षेत्न में कहा गया है कि महिलाओं की पूर्ण श्रम शिक्त की भागीदारी के अभाव में भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का औसतन 4.2 फीसदी का नुकसान उठाना पड़ता है। अफगानिस्तान, जहां औरत होने का मतलब है गुलामी, नर्क, और खौफ की जिंदगी। कांगो, जहां न विकास है और न औरतों के लिए कोई सम्मान। पाकिस्तान, जहां का समाज औरतों को बराबरी का हक नहीं देता। और भारत! जी हां, शर्म कीजिए कि हम इस सूची में हैं। जी हां, औरतों पर होनेवाले अत्याचार के मामले में चौथे नंबर पर हमारा देश अफगानिस्तान, कांगो और पाकिस्तान का मुकाबला कर रहा है। सूची बनाई है महिला अधिकारों के लिए कानूनी सूचना और कानूनी सहायता केंद्र थॉम्सन रॉयटर टस्टला वूमन ने। इसका सर्वेक्षण कहता है कि महिलाओं के लिए भारत चौथे नंबर का सबसे खतरनाक देश है। सर्वे में भारत को महिलाओं के लिए खतरनाक बताने के कारण भी गिनाए गए हैं। भारत में बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है। कई जगहों पर बेटियों को पैदा होने के बाद मौत के घाट उतार दिया जाता है। भारत लड़कियों की तस्करी का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। भारत में भारी संख्या में लड़कियों को देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। लड़कियों के साथ यौन हिंसा गांव से लेकर बड़े शहरों तक आम है। इसमें लड़कियों से छेड़छाड़, बलात्कार और उनकी हत्या तक शामिल है। इतना ही नहीं लड़कियों को परंपरा, धर्म और जाति के नाम पर भी शिकार बनाया जाता है। उनके स्वास्थ्य पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है। 2009 में ही गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने यह खुलासा किया था कि लड़कियों की तस्करी इस देश के लाखों लोगों का धंधा है। 2009 में ही सीबीआई ने अंदाजा लगाया था कि तकरीबन 30 लाख लड़कियों की तस्करी की गई, जिनमें से 10 फीसदी विदेशों में बेची गईं; जबकि 90 फीसदी लड़कियों को भारत में देह व्यापार में धकेल दिया गया। इसमें से 40 फीसदी नाबालिग और बेहद कम उम्र की थीं। साफ है इस सर्वे रिपोर्ट को आसानी से नहीं खारिज किया जा सकता। भारत को महिलाओं के लिए चौथे नंबर का खतरनाक देश बताने वाला यह सर्वे 213 विशेषज्ञों के बीच हुआ। इन लोगों ने कई मानकों पर हर देश को परखा और इस परख में भारत के लिए सामने आई सबसे बडी शर्म की बात। इस शर्म के लाखों सबूत हैं। देश की आधी आबादी के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है इसके करोड़ों सबूत हैं। सिर्फ 2009 में ही महिलाओं के साथ 2 लाख तीन हजार आठ सौ चार आपराधिक वारदातें हुईं। इनमें हत्या, बलात्कार, यौन शौषण, तस्करी जैसे मामले शामिल हैं। लेकिन यह भी आधा सच है। अगर जानकारों की मानें तो महिलाओं के खिलाफ होने वाले आधे अपराध तो थाने तक पहुंचते ही नहीं हैं।

मगर शर्म इन्हें आती नहीं





धुर धर्मनिरपेक्ष भारत और कट्टर इस्लास्मिक मुल्क पाकिस्तान के सियासी चरित्र में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। कश्मीर की आड़ में भारत विरोधी भावनाएं भड़का कर अगर पाकिस्तान के सियासत दार सत्ता सुख भोग रहे हैं ,तो उसी सरहद पार से आए आतंकवाद के सियासी इस्तेमाल को भारत के राजनैतिक रणनीतिकार भी बखूबी समझ चुके हैं। वर्ना तिहाड़ जेल में सरकारी दामाद बनकर बैठे कसाब और अफजल गुरू को अब तक ठिकाने नहीं लगाने की आखिर और क्या मजबूरी है? देश के सबसे ताकतवर शख्स के तौर पर तकरीबन स्थापित हो चुके सत्तारूढ़ कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दो टूक कहते हैं,ये अटैक रोकने की शक्ति उनकी सरकार में नहीं है। बेशर्मी की हद तो यह है कि पूरी कांग्रेस राहुल को सही ठहराने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है। और तो और कांग्रेस के बड़बोले दिग्विजय सिंह को सीरियल ब्लास्ट में आरएसएस का हाथ होने की आशंका डरा रही है। दावे तो ऐसे-ऐसे हैं, जैसे यही विषय के विशेषज्ञ हैं और देश की खुफिया एजेंसियां सीधे इन्हीं को रिपोर्ट करती हैं। यह दीगर बात है कि मुंबई हमले के पूरे 48 घंटे बाद यूपीए सरकार के आंतरिक सुरक्षा सचिव का नकारा सा राजनीति प्रेरित बयान आता है कि सभी आतंकी संगठनों पर साजिश का शक है। इन्हें अभी भी सिर्फ शक है। वह भी सब पर। क्या यह नपुंसक सत्ता और नकारा खुफिया एजेंसियों की बुझदिली नहीं कि जब मर्जी पड़ी तब सीमा पार से आए चंद बेखौफ आतंकी देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के कलेजे पर ब्लास्ट के खूनी घाव देकर आराम से निकल जाते हैं और हम सलाम मुंबई का स्वांग रच कर सब कुछ भूल जाते हैं। देश आतंकवाद जैसे गंभीर संकट से जूझ रहा है । ऐसे में बेसिर पैर के सियासी आरोप-प्रत्यारोप क्या अप्रकट रूप से मूल संकट से ध्यान हटाने की सोंची-समझी साजिश नहीं हैं? यह साजिश आतंकवादियों को सुरक्षित रास्ता देने जैसी भले ही न हो लेकिन स्वयं की नाकामियां छिपाने जैसी तो है ही। सत्तारूढ़ दल होने के नाते क्या देश और समाज के प्रति कांग्रेस की यही जिम्मेदारी और जवाबदेही है? ढाई साल के अंदर मुंबई में दूसरे धमाके बताते हैं कि हमारी सरकार ने 26/11 से सबक लेने की जरूरत नहीं समझी है। लिहाजा आतंकियों के हौसले बुलंद हैं। सरकार कितनी गंभीर है, अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूर्व केंद्रीय गृहसचिव राम प्रधान ने केंद्र को मुंबई बम ब्लास्ट की जांच रिपोर्ट एक साल पहले सौंप दी थी पर आज तक इस रिपोर्ट की सरकारी तौर पर समीक्षा तो दूर अध्ययन की आवश्यकता तक नहीं समझी गई। आतंक के खिलाफ हमारे सरकारी सुरक्षा उपायों का यही सच है। प्रधान की रिपोर्ट कई खुलासे करती है। मसलन-ऐसे हमले आईबी और सीबीआई के बूते नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर तैयार किए गए मजबूत नेटवर्क से ही रोके जा सकते हैं। आतंकी भी स्थानीय मदद से ही वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। खतरनाक यह भी है कि आतंकियों की नजर अब जहां जम्मू- कश्मीर, हिमाचल और पंजाब पर है। वहीं इसके तार मध्यप्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से भी जुड़ते नजर आ रहे हैं। सरकार को यह समझना चाहिए कि आतंक के इस देशव्यापी नेटवर्क की आंशका के बीच नक्सलियों के पास आतंकवादियों के हथियारों का मिलना देश के लिए कितना खतरनाक है?

1555 हजार करोड़ का भ्रष्टाचार


बीते एक दशक में देश में 1555 हजार करोड़ रु पए भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए हैं। इसमें से बड़ी राशि को अवैध रूप से देश से बाहर पहुंचा दिया गया है। इंडियाफोरेंसिक नामक संस्था की इस रिपोर्ट के अनुसार 2009 में औसतन एक व्यक्ति ने भ्रष्टाचार पर 2000 रु पए खर्च किए। 10 साल पहले के मुकाबले यह आंकड़ा 260 गुना ज्यादा है। ‘एसरटेनिंग साइज आफ करप्शन इन इंडिया विद रेस्पेक्ट टू मनी लांडरिंग’ नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 2000 से 2009 के बीच में मनी लांडरिंग के द्वारा भारत से 1886 हजार करोड़ रु पए भारत से बाहर भेज दिया गया। जीडीपी के आधार पर यदि इस पैसे का आकलन किया जाए तो इसमें सबसे ज्यादा 1555 हजार करोड़ रु पए भ्रष्टाचार के जरिए आया। पुणो की संस्था इंडिया फोरेंसिक जालसाजी, सुरक्षा, जोखिम प्रबंधन जैसे कई मामलों में सीबीआई की मदद करती है। कैसे किया अध्ययन : जोशी मॉडल पर आधारित यह रिपोर्ट प्रॉपर्टी रिकवरी, क्र ाइम और जीडीपी के आधार पर तैयार की गई। एंटी फ्रॉड और मनी लांडरिंग विशेषज्ञ मयूर जोशी का कहना है कि इन तीन मॉडल्स से पता चलता है कितना काला धन वैध हुआ। इसके आंकड़े नेशनल क्र ाइम रिकॉर्डस ब्यूरो (एनसीआबी) पर आधारित हैं। इंडिया फॉरेंसिक ने सत्यम घोटाले में सीबीआई को मदद दी थी।
तीन सौ पार्टियों ने आज तक नहीं भरा टैक्स रिटर्न आयकर विभाग की जांच में खुलासा हुआ है कि देशभर की करीब 300 पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों ने आजतक कभी भी अपना आयकर रिटर्न दाखिल नहीं किया। इस खुलासे के बाद चुनाव आयोग ने विभाग को इन पार्टियों को नोटिस जारी करने को कहा है।

मासूमों के शोषण में मध्यप्रदेश सबसे आगे


देश के अन्य राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश नाबालिगों विशेषकर लड़कियों के शोषण के मामले में अव्वल बनकर उभरा है। यह खुलासा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी ताजा आंकडों से हुआ है, जिसके अनुसार मध्यप्रदेश में नाबालिगों के साथ 4646 आपराधिक वारदातें हुई, जो देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अधिक है। इसमें भी प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाला इंदौर337 मामलों के साथ पहले स्थान पर रहा है। इसी प्रकार जबलपुर में 257 और भोपाल में 127 मामले सामने आए हैं। इन आपराधिक घटनाओं में भी मासूम बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएं ज्यादा हुई हैं। एनसीआरबी के ये आंकड़े मध्यप्रदेश को शर्मसार करने के लिए काफी हैं। बच्चों विशेषकर नाबालिग लड़कियों से बलात्कार के मामले में मध्यप्रदेश ‘नंबर वन’ है, प्रदेश में 1071 नाबालिग बिच्चयों के साथ बलात्कार की घटनाएं हुई, जो पूरे देश में हुई वारदातों का 20 प्रतिशत है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, नाबालिग बिच्चयों के साथ बलात्कार के मामले में मध्यप्रदेश के बाद उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र का नंबर है, जहां क्र मश: 625 और 612 घटनाएं दर्ज हुईं। बच्चों के साथ हो रहे अत्याचार के मामले में भोपाल तीसरे नंबर पर है। के बाद भोपाल में बच्चों के साथ सबसे ज्यादा बलात्कार की घटनाएं हुईं। दिल्ली में बलात्कार की 258, मुंबई में 85 और भोपाल में 77 घटनाएं हुई। इसी प्रकार, यदि बच्चों की हत्याओं की बात करें तो मध्यप्रदेश में 115 बच्चों की हत्याएं हुई, जबकि उत्तरप्रदेश में 363, महाराष्ट्र में 181 और बिहार में 126 हत्याएं हुई। इस मामले में भोपाल छठे स्थान पर है, जहां बाल हत्या के सात प्रकरण दर्ज किए गए। दिल्ली 65 बाल हत्याओं के साथ पहले और मुंबई 16 बाल हत्याओं के साथ दूसरे नंबर पर है।
बचपन बचाओ आंदोलन के प्रांतीय संयोजक डॉ. राघेवन्द्र सिंह तोमर ने आरोप लगाया है कि प्रदेश में बाल व्यापार, बाल विवाह और बाल श्रम जैसी घटनाएं आए दिन अखबारों की सुखिर्यों में रहती हैं, लेकिन एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में ऐसे अपराध नहीं के बराबर हैं।

क्राइम में इंदौर नंबर वन




स्वाद और सुकून का पर्याय रहे मध्यप्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर की तस्वीर तेजी से बदल रही है। राज्य की इस वाणिज्यिक राजधानी का चैन लुट चुका है। दिन दहशत में हैं और रातों की नींद हराम है। जी,हां यह वही मिनी मुंबई है जिस पर क्या मालवा, पूरे मध्यप्रदेश को नाज था मगर आज इसी इंदौर की बदौलत पूरे देश के सामने समूचा मध्यप्रदेश शर्मसार है। बेस्वाद होता नाजुक रिश्तों का ताना-बाना। अराजक नागरिक जीवन और लापरवाह माहौल.. अगर हम, एनसीआरबी की मानें तो अपराध और असुरक्षा के भयावह आंकड़े हमारे सामने महानगरीय विकास का यह कैसा मॉडल बनाते हैं? विकास की बुनियाद पर विनाश की यह कैसी शर्त? राज्य की वाणिज्यिक राजधानी इंदौर देश की आपराधिक राजधानी बन चुकी है। गंभीर अपराधों के मामलों में इंदौर की बदौलत मध्यप्रदेश पूरे देश में टॉप पर है। देश में अपराधों के अधिकृत अभिलेख जारी करने वाली शीर्ष संस्था नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट क्राइम इंडिया-2009 की मानें, तो लगातार चार वर्षो से इंदौर देश का सर्वाधिक क्राइम रेट 860.3(प्रति एक लाख की आबादी पर) वाला शहर है। प्रदेश की राजधानी भोपाल दूसरे नंबर (836.4) है। संगीन अपराधों के सवाल पर इंदौर ने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और चेन्नई समेत देश के 34 बड़े शहरों के कान काट लिए हैं। इंदौर में राज्य सरकार की अतिमहत्वाकांक्षी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रणाली प्रभावी होने के बावजूद खराब कानून व्यवस्था के मामले में इंदौर देश में सबसे आगे है। राजधानी भोपाल का दूसरा नंबर है। 2010 के दौरान देश में डकैती की सबसे ज्यादा 245 वारदातें इंदौर में दर्ज की गईं हैं। पिछले साल के मुकाबले इंदौर में बलात्कार की वारदातों में 41 फीसदी इजाफा हुआ है। छेड़खानी में पूरे देश में इंदौर टॉप पर है। प्रदेश में छेड़खानी की कुल 6307 शिकायतें आईं, जिनमें से सबसे ज्यादा 419 मामले इंदौर में दर्ज किए गए। बच्चों के साथ सितम में देश में जहां मध्यप्रदेश अव्वल रहा, वहीं प्रदेश में चाइल्ड रेप की 4646 घटनाओं में सर्वाधिक 1071 प्रकरण इंदौर में ही रिकॉर्ड किए गए। संगीन अपराधों में इंदौर जहां मध्यप्रदेश में टॉप पर है, वहीं भारतीय दंड संहिता के सर्वाधिक अपराधों में पूरे देश के मुकाबले मध्यप्रदेश का कोई जवाब नहीं है। नेशनल क्र ाइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक, देश में सालाना विभिन्न प्रकार के लगभग 20 लाख अपराध दर्ज होते हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा प्रकरण अकेले मध्यप्रदेश के होते हैं। संगीन मामलों में एनसीआरबी की यह टिप्पणी गंभीर है। क्र ाइम इंडिया-2009 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में बलात्कार की वारदातों में एमपी सबसे आगे है। देश के कुल 2998 कुकर्मो में अकेले मध्यप्रदेश की 16 फीसदी भागीदारी रही। यहां सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति की महिलाएं रेप की शिकार हुईं। हत्या के मामलों में प्रदेश पांचवें नंबर पर जरूर रहा मगर अनुसूचित जनजाति वर्ग की देश में सर्वाधिक 41 हत्याएं एमपी में ही हुईं। इतना ही नहीं, अपहरण की वारदातों में भी बाजी मध्यप्रदेश ने ही मारी। देश में अपहरण की कुल 118 घटनाओं के मुकाबले प्रदेश में सबसे ज्यादा 27 अपहरण हुए। हत्या की कोशिशों में देश में एमपी का चौथा नंबर रहा मगर देश में भ्रूण हत्या के कुल 123 मामलों में सर्वाधिक 39 प्रकरण एमपी में रिकार्ड किए गए। पंजाब दूसरे नंबर पर रहा। ट्रेन में चोरी की वारदातों में मध्यप्रदेश जहां दूसरे स्थान पर रहा, वहीं महाराष्ट्र ने बाजी मारी, लेकिन सांस्कृतिक धरोहरों की 415 चोरियों के साथ अव्वल अपना मध्यप्रदेश ही रहा। एनसीआरबी की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि मिनी मुंबई इंदौर शहर अपराध की नई राजधानी बनती जा रही है। नेशनल क्र ाइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, देश के 30 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में अकेला मध्यप्रदेश ऐसा है, जहां पुलिस के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें आईं। उत्तरप्रदेश दूसरे और महाराष्ट्र तीसरे नंबर पर रहे। औसतन प्रदेश के हर पांचवें पुलिसकर्मी के खिलाफ पुलिस ने ही शिकायत दर्ज की। एनसीआरबी की राय में मध्यप्रदेश का जहां हर पांचवां पुलिसकर्मी दागी है, वहीं आम आदमी के साथ पुलिस के निम्नस्तरीय व्यवहार की शिकायतों के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक प्रणाली वाला इंदौर शहर दूसरे नंबर पर रहा। औसतन इंदौर में तैनात प्रत्येक पुलिसवाले के खिलाफ दो शिकायतें आईं। इस मामले में दिल्ली टॉप पर रही। एमपी पुलिस से जुड़ा एक सनसनीखेज पहलू यह भी है कि डय़ूटी के दौरान जिंदगी से हार मानकर आत्महत्या करने वाले पुलिसकर्मियों के मामले में भी मध्यप्रदेश, देश में सबसे आगे है। नौकरी के दौरान देश में कुल 139 पुलिसवालों ने खुदकुशी की जिनमें से सबसे ज्यादा 31 पुलिसकर्मी अकेले मध्यप्रदेश के थे।

शनिवार, 16 जुलाई 2011

सरकार के पास सिर्फ बातों की बुलेट ट्रेन



सौ किलो मीटर प्रति घंटे से भी ज्यादा की रफ्तार से दौड़ती यात्री ट्रेन के अगर अचानक आपात कालीन ब्रेक लग जाएं तो क्या होगा? सिर्फ तबाही। मौत का तांडव। कोहराम और चीख पुकार। हावड़ा से दिल्ली जा रही कालका मेल के साथ भी यही हुआ। अब, इससे ज्यादा हो भी क्या सकता है? प्रभावितों के परिजनों को बतौर मुआवजा सरकारी एहसान से लादने की कोशिश चल रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सीधी निगरानी में चल रहे सुस्त राहत कार्यो पर रोना आ रहा है। एक और उच्च स्तरीय जांच शुरू कर दी गई है। प्रधानमंत्री ने हताहतों और पीड़ितों के प्रति गहरा दुख जताते हुए संवेदना प्रकट की है। सवाल यह है कि संवेदनाएं प्रकट करने के इन घड़ियाली आंसुओं से अब क्या हासिल होगा? समूची सरकारी व्यवस्था को संवेदनशील बनाए बिना ये सियासी टेसुए भी नाहक में ही बह जाएंगे। पश्चिम बंगाल में सीएम की कुर्सी पर ममता बैनर्जी की ताजपोशी के बाद भारत सरकार स्थाई तौर पर एक अदद केंद्रीय रेल मंत्री का इंतजाम नहीं कर पाई है। यूपीए सरकार के बड़बोलों की बोली में इसे गठबंधन सरकार की विडंबना ही कहिए कि सरकार को लाखों -लाख यात्रियों से ज्यादा फिक्र ममता की है। रेल मंत्रलय से ममता का मोह जगजाहिर है। वह किसी भी हालत में रेल मंत्रलय तृणमूल के पास ही रखना चाहती हैं, लिहाजा तृणमूल के राज्यमंत्री मुकुल राय के पास रेल मंत्रलय का प्रभार है। सियासी नफे-नुकसान की पटरियों पर दौड़ रही कालका अगर ऐसे में अपने ही यात्रियों के लिए काल बन जाती है तो इसमें आखिर कसूर किसका है? असल में विश्व का यह सबसे बड़ा रेल नेटवर्क राजनीतिक हितों की भेंट चढ़ चुका है और इसकी कीमत आम आदमी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ रही है। वोट के लिए यात्री सुविधाओं के नाम पर सरकार लोकलुभावन घोषणाओं के बीच बातें तो बुलेट ट्रेनों की करती है,लेकिन हकीकत यह है कि तमाम रेल हादसों के बाद भी रेल मंत्रलय अभी तक राहत और बचाव के तौर तरीके तक नहीं सीख पाया है। सवाल यह है कि जब-जब ऐसे हादसे होते हैं तब-तब रेल सुविधा और सुरक्षा के नाम पर दिखाए गए भारी भरकम बजटीय आंकड़ों की असलियत आम आदमी को क्यों नहीं दिखती है? सुरक्षित सफर की गारंटी पर ऐसे गंभीर सवाल कोई नई बात नहीं है। गनीमत तो यह है कि हादसे की शिकार कालका का ड्राइवर जिंदा है ,वर्ना दरुघटना के लिए इसी ड्राइवर को दोषी मानकर कथित उच्च स्तरीय तकनीकी जांच की एक और फाइल बंद कर दी जाती। शुरूआती जांच में इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि कालका कांड गंभीर तकनीकी भूल का नतीजा है। आमतौर पर ऐसी दुर्घटनाओं के लिए रेल परिचालन में मौजूद तकनीकी त्रुटियां ही जिम्मेदार होती हैं ,लेकिन बावजूद इसके लाचार पटरियों का रखरखाव और सिग्नलों का आधुनिकीकरण भगवान भरोसे है। जोखिम कितना भयावह हो सकता है? अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के 1लाख 27 हजार पुलों में से लगभग 51 हजार पुल ऐसे हैं ,जो 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। अपनी उम्र खो चुके अंग्रेजों के जमाने के इन पुलों पर यात्री गाड़ियां सरपट दौड़ाई जा रही हैं। मानव रहित रेलवे क्रासिंग और तकनीकी अमले के अभाव के सवाल पर रेलवे के पास बजट का रोना स्थाई समस्या बन चुकी है।

सोमवार, 11 जुलाई 2011

नारायण की लक्ष्मी और दरिद्र नारायण


पद्मनाभ स्वामी मंदिर की संपदा में स्वामित्व जताने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी देकर सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार के तेवर ढीले कर दिए हैं। एक हजार करोड़ से भी ज्यादा पुरा संपदा से मालामाल इस मंदिर पर कल तक अपना हक जता रही वहां की कांग्रेस सरकार ने भी कदम खींच लिए हैं। इस बीच देश में मौजूद ऐसी अकूत संपदाओं के औचित्य, स्वामित्व, संरक्षण और उपयोग को लेकर बहस शुरू हो गई है। बहस बेवजह नहीं है। दरअसल इस किस्म की अपार संपदा के भंडारण के बाद भी देश में कानूनी स्तर पर कोई स्पष्ट नीति नहीं है। इससे भी ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि अमीर हिंदू मंदिरों पर सरकार की गिद्ध दृष्टि लग गई है। मसलन दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने भी मंदिरों में मौजूद संपदा के आकलन की कवायद शुरू कर दी है। जाहिर है अब ऐसी संपदाओं को बेनामी बनाकर इसके राष्ट्रीयकरण की भी मांग उठाई जा सकती है। सवाल यह है कि क्या इन संपत्तियों को सरकार के हवाले किया जा सकता है। भारी भ्रष्टाचार के लिए पहले से ही बदनाम सरकारों के प्रति आम जनमानस में विश्वास का संकट एक बड़ी बाधा है। आजादी के बाद देश की चार बड़ी रियासतों की 4 लाख करोड़ की संपत्ति राजसात करने के मामले केंद्र की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। हैदराबाद के निजाम का 240 करोड़ का खजाना रहा हो या फिर जम्मू-कश्मीर रियासत की 20 हजार करोड़ की संपदा, सरकार ने कभी भी पारदर्शिता नहीं दिखाई है। यह संपदा अब कहां-किस हाल में है? रहस्य कायम है। कहने को तो सरकारें जनहित में काम करती हैं, लेकिन वह कितनी जन हितकारी हैं ? यह किसी से छिपा नहीं है। कालेधन के मामले में सुप्रीमकोर्ट का भरोसा खो चुकी केंद्र सरकार पर अब कौन भरोसा कर सकता है? वस्तुत: ये खजाने सिर्फ संपत्ति नहीं हैं। यह कोई खैराती खजाना नहीं है। राजशाही द्वारा दान में दी गई पूजा भेंट है, जो भगवान को समर्पित है। यह सदियों पुरानी ऐतिहासिक विरासत भी है। बेहतर तो यही हो कि इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए एक स्पष्ट राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। मंदिरों का स्वामित्व ट्रस्ट के ही पास रहे और ट्रस्ट किसी ऐसे सक्षम राष्ट्रीय आयोग से नियंत्रित और संचालित हो जो ट्रस्टियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करे। आमतौर पर अभी ट्रस्ट स्थानीय प्रशासन से ही संचालित और नियंत्रित हैं। प्रशासनिक अधिकारी ही इसके प्रशासक हैं। आशय यह कि अप्रकट रूप से ट्रस्टों की कमान राज्य सरकारों के ही हाथ में है। अकूत संपदा को आपदा राहत कोष के रूप में इस्तेमाल का सुझाव भी स्वागत योग्य है। सूखा,बाढ़,अकाल और महामारियों के दौरान मंदिरों द्वारा मदद की प्राचीन परंपरा रही है। अच्छा हो इस धन को गरीबों का जीवन स्तर सुधारने पर लगाया जाए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक स्थलों पर पूजा और इबादत के अपने -अपने तौर तरीके होते हैं,लेकिन धन के मामले में सभी धर्मों के लिए समानता का कानून होना चाहिए। ऐसे सभी खजानों को एक नीति नियम के तहत लाया जाए। इसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करके सरकार के हवाले करना ठीक नहीं होगा क्योंकि आज अगर हिंदू मंदिरों के साथ ऐसा होगा तो कल मस्जिदों और गिरजाघरों के प्रति भी यही सवाल उठेगा। यह आस्था से जुड़ा बेहद संवेदनशील मामला है। कुटिलता से काम नहीं चलेगा।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

कमाल:सांसद मालामाल


क्षेत्रीय विकास के लिए सांसद निधि में150 प्रतिशत की वृद्धि के साथ ही इस मद के औचित्य पर बहस शुरू हो गई है। इससे पहले बिहार में विधायक निधि बंद करने के राज्य सरकार के फैसले के बाद कमोबेश ऐसे ही सवाल उठे थे। तमाम विरोधों के बीच सरकार का यह फैसला तब आया है,जब पूरा देश भारी भष्टाचार की आग में सुलग रहा है। संसद के अंदर सांसदों को जनलोकपाल के दायरे में लाने की मांग पर बवाल है। 90 से ज्यादा सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। तकरीबन 180 सांसद तो ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में अपराधिक चारित्र रखते हैं। वैसे भी यह आम धारणा बन चुकी है कि सांसद मद भ्रष्टाचार का पोषण करता है। आंध्र प्रदेश के 6 जिलों के लिए इसी मद से आवंटित 64 करोड़ बैंक में एफडी की ब्याजखोरी किसी से छिपी नहीं है। चार साल पहले एक स्टिंग के जरिए कुछ सांसदों को ठेके के लिए कमीशनबाजी करते रंगे हाथ पकड़े जाने का मामला पहले ही शर्मशार कर चुका है। आरोप है कि जमीनी स्तर पर विकास के लिए आवंटित यह रकम आमतौर पर या तो राजनीतिक लाभ के लिए खर्च की जाती है। या फिर खर्च ही नहीं की जाती है। सच तो यह है कि इस भारी भरकम फंड के साथ कमीशनबाजी का ख्ेाल काल्पनिक नहीं है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक सांसद निधि के इस्तेमाल में ठेकाप्रथा और कमीशनखोरी के तौर तरीकों पर पहले ही अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। कैग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि नियम विरूद्ध सांसद निधि से 11 राज्यों में किस तरह से पीएम-सीएम राहत कोष को 7 करोड़ 37 लाख दिए गए। 14 राज्यों में सांसदों ने एयरकंडीशनरऔर फर्नीचर के अलावा ट्रस्ट के अस्पतालों और स्कूलों को किस प्रकार 6 करोड़ की रकम आवंटित की गई। देश के 6 राज्यों में इसी मद से नामवर लोगों के नाम पर 7 करोड़ खर्च करके निर्माण कार्य कराए गए। सांसद निधि के बेजा इस्तेमाल के मामले में महाराष्ट्र सबसे आगे है। तमिलनाडु दूसरे और पश्चिम बंगाल तीसरे स्थान पर है। इसके बाद क्रमश: असम, सिक्किम, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, नागालैंड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान का नंबर आता है। सरकारी दावे के विपरीत कैग की राय में योजना लागू होने के डेढ़ दशक बाद भी इस मद के 1053.63 करोड़ रुपए आज तक खर्च ही नहीं किए गए हैं। आमतौर पर चुनावी वर्षो में इसे दिल खोल कर खर्च किया जाता है। जाहिर है इस फंड का इस्तेमाल सियासी प्रयोजन के लिए किया जा रहा है। दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी सांसद निधि को समाप्त करने की सिफारिश की है। आयोग का तर्क है कि सांसदों का काम प्रशासनिक खर्च पर नजर रखना है न कि स्थानीय निकायों के काम हथियाना। नेशनल कमीशन फॉर रिव्यू ऑफ द वर्किग ऑफ कांस्टीटय़ूशन और 2005 में स्वयं सत्तारूढ़ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षतावाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति भी सांसद निधि के पक्ष में नहीं थी। मगर बावजूद इसके केंद्र सरकार ने सांसदों की सालाना निधि 2 करोड़ से बढ़ाकर 5 करोड़ कर दी। सवाल यह है कि क्या राजनैतिक नफे-नुकसान के लिए सांसदों को उपकृत करना ही यूपीए सरकार की प्राथमिकता है। क्या यह जानने की जरूरत नहीं कि सांसद निधि का आखिर औचित्य क्या है? क्या वाकई इससे विकास का सरकारी संकल्प पूरा होता है?

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

नकली दवाओं के असली खतरे





खाओ तो जहर और नहीं खाओ तो मर्ज से मौत..बाजार में नकली दवाओं के असर का यही सच है। नकली जीवन रक्षक दवाओं का यह जानलेवा जहर बाजार से पसर कर अब कमीशनखोर सरकारी सप्लाई तक पहुंच गया है। राजधानी भोपाल के सबसे बड़े शासकीय अस्पताल हमीदिया समेत 4 अस्पतालों में नकली दवाओं का यूं पकड़ा जाना हालांकि अब चौंकाता नहीं है, लेकिन इसके पीछे छिपा खेल बेहद खतरनाक है। कहने को तो स्वास्थ्य नीति की मोहताज मध्यप्रदेश सरकार की अपनी दवा नीति भी है ,लेकिन दवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता की गारंटी देनेवाली इस नीति के तहत जहां राज्य में दवाओं का दर निर्धारण तमिलनाडु मेडिकल सर्विस कॉरपोरेशन के सुझावों पर निर्भर है। वहीं सरकारी खरीदी के लिए दवा कंपनियों के नाम चैन्नई की आईएमएनएससी सुझाती है। रोजमर्रा के लिए जरूरी 201 ऐसी जीवन रक्षक दवाओं की सरकारी खरीदी की जाती है,जो 96 प्रतिशत बीमारियों के लिए कारगर है। कुल दवा खरीदी का 80 फीसदी बजट प्रदेश के जिला स्तर पर आवंटित है। शेष 20 प्रतिशत राजधानी स्तर पर आरक्षित है। नीति के अनुसार सीएमएचओ और सिविल सजर्न स्थानीय स्तर पर निविदा के आधार पर दवाएं खरीद कर मरीजों को मुफ्त में दे सकते हैं। साफ है कि दवा नीति के इसी लचीलेपन से सौदेबाजी की गुंजाइश बनती है। जाहिर है,सरकारी चिकित्सा तंत्र का एक बड़ा हिस्सा इस काले कारोबार को ताकत दे रहा है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि राज्य में इंदौर नकली दवाओं का गढ़ है। मध्यप्रदेश समेत देश के 9 राज्यों में नकली दवाओं का सालाना कारोबार 7 हजार करोड़ के आसपास है। एक अनुमान के अनुसार इसमें प्रति पंचवर्षीय दो गुना दर से इजाफा हो रहा है। सितंबर 2008 में अमेरिका ने भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीन जैनरिक दवाओं के खरीदी पर पाबंदी लगा दी थी। अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के मुताबिक मध्यप्रदेश के देवास में निर्मित दवाएं अमेरिका में निर्मित दवाओं के मुकाबले मानक स्तर की नहीं पाई गईं थीं। रैनबैक्सी अकेले अमेरिका को सालाना पौन दो सौ करोड़ डॉलर मूल्य की जेनैरिक दवाओं का आयात करती है। एक विडंबना यह भी है कि सरकार के पास न तो पर्याप्त संख्या में ड्रग इंस्पेक्टर हैं और न ही नमूनों की जांच के लिए सक्षम लैब हैं। नकली दवा माफिया इस कदर हावी है कि उसे केंद्रीय औषधीय एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम के गैर जमानती और आजीवन कारावास जैसे सख्त प्रावधानों की भी परवाह नहीं है। सात साल पहले लिए गए केंद्र सरकार के एक फैसले के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आसानी से सस्ती दर पर पूरी सुरक्षा के साथ ड्रग ट्रायल कर सकती हैं। मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था का साइड इफैक्ट यह है कि मौजूदा समय में देश के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भागीदारी 70 प्रतिशत से भी ज्यादा है। राज्य सरकार पहले ही स्वीकार कर चुकी है कि हाल ही में 50 दवाओं के लिए 23 सौ मरीजों पर ड्रग ट्रायल किया गया। जिनमें से 1644 बच्चे और 6 सौ वयस्क थे। असल में दवा कारोबार में लगे मौत के सौदागर बड़े चतुर हैं। वे सरकार की सुस्ती को भी समझते हैं और अफसरशाही की कमजोरियों को भी जानते हैं। जरूरत नकली दवाओं के इन असली खतरों से सतर्क रहने की है।

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

लोभ का मायाजाल


मध्यप्रदेश में आधा दर्जन फर्जी चिटफंड कंपनियां रोज उधार की जिंदगी जीने वाले आमजनों की गाढ़ी कमाई का एक हजार करोड़ ठगकर भूमिगत हो गईं और किसी को भनक तक नहीं लगी। होश तो तब आया जब लोभ-मोह का यह मायाजाल मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच के संज्ञान में आया। अब अपनी चमड़ी बचाने के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अमला हरकत में है। ग्वालियर के कलेक्टर 33 फर्जी चिट फंड कंपनियों के इश्तेहार लगाकर आम निवेशकों को सतर्क कर रहे हैं। आनन -फानन में ऐसी 22 कंपनियों से जुड़े 98आरोपियों के खिलाफ मुकदमे कायम किए गए हैं। राज्य के दीगर जिलों के जिलाधिकारियों को चिट्ठी लिखकर अलर्ट रहने के सुझाव दिए गए हैं। शिकायतों का अंबार इस कदर है कि सुनवाई के लिए अलग से काउंटर खोला गया है। अकेले ग्वालियर- चंबल संभाग से ठगी की 13 हजार शिकायतें हैं। सवाल यह है कि क्या ये शिकायतें दो-चार दिन में अचानक पैदा हो गई हैं? सच तो यह है कि इससे पहले इन शिकायतों को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया। आमतौर पर ऐसे मामलों में ऐसा ही होता है। व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि ठगी का शिकार शिकायतकर्ता पुलिस,प्रशासन और कंपनी के बीच उलझकर रह जाता है। कमाल तो यह भी है कि करोड़ों की ठग कंपनियों के मालदार संचालकों की गिरफ्तारी के लिए सरकारी तौर पर दो-दो हजार के ईनाम घोषित किए गए हैं। अब लकीर पीटने की इस कवायद के बीच सबसे बड़ा भय ठगराजों के विदेश भाग जाने का है। गहरे सियासी रिश्तों की अपनी तल्खी और सरगर्मी है। आम निवेशक हतप्रभ हैं। अब तक सबसे बड़ी धोखेबाज कंपनी बनकर उभरी पीएसीएल इंडिया लिमिटेड के एक एजेंट ने जबलपुर में ट्रेन से कटकर खुदकुशी कर ली है। ये छोटे-छोटे लोगों की बड़ी-बड़ी मुश्किलें हैं। ऐसी दगाबाजी कोई नई बात नहीं है। सब जानते हैं कि जब शेड्यूल्ड बैंक में आठ-दस फीसदी एफडी दे रहे हैं ,तो कोई चिट फंड कंपनी साढ़े चार साल में जमाधन को आखिर कैसे दो गुना कर सकती है? यह सिर्फ लोभ की विडंबना नहीं है। बदनसीबी इस बात की भी है कि संवेदन शून्यता जिम्मेदार सरकारी तंत्र का स्थाई चरित्र बन चुकी है। यह आर्थिक धोखाधड़ी कितनी गंभीर है, अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाईकोर्ट ने इस तर्क के साथ मामले की जांच सीबीआई को सौंपी है, कि राज्य सरकार प्रकरण की पड़ताल में सक्षम नहीं है। राज्य के पास इतने संसाधन और अधिकार नहीं हैं कि वह देश के दूसरे प्रदेशों में सक्रिय फर्जी चिटफंड कंपनियों के खिलाफ जांच कर सकें। इंसाफ की खातिर यही बेहतर होगा कि जांच सीबीआई से कराई जाए। सीबीआई को इसके लिए तीन माह का समय दिया गया है। इन फर्जी चिट फंड कंपनियों में निवेश नहीं करने की नसीहत के साथ सेबी भी सुप्रीम कोर्ट चली गई है। मध्यप्रदेश के अलावा पांच राज्यों में ऐसे ही फर्जीवाड़े की आशंका है। जानलेवा महंगाई के बीच प्रदेश के लाखों निवेशकों के खून पसीने की इस कमाई पर बेईमानी का कहर पीड़ा दायक है। पेट काटकर पैसे बचाने की मुश्किलों के ऐसे दुखांत का दर्द सिर्फ वही समझ सकता है जिसने इसे जीया है। पैरों तले जमीन नहीं है। अभी नहीं तो कभी सही,सुंदर भविष्य के ऐसे सपने टूटे कांच की तरह किर्चे-किच्रे बिखर चुके हैं।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

सत्ता के संवैधानिक पतन की पीड़ा


काले धन के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट का कोड़ा पड़ते ही यूपीए सरकार के बड़बोले भूमिगत हो गए हैं। सबकी बोलती बंद है। शिखर अदालत का अगर किसी सरकार से भरोसा उठ जाए तो इसके बाद क्या बचता है? क्या यह किसी भी सरकार के संवैधानिक और नैतिक पतन की पराकाष्ठा नहीं है? सीधे भ्रष्टाचार से जुड़े कालेधन के मामले में सरकार की ऐसी क्या लाचारी है? आखिर , सरकार ऐसे किन काले चोरों के बचाने की कोशिश में है, जिनके लिए वह संवैधानिक सत्ता को भी दांव पर लगा सकती है? वैश्विक संधियों का हवाला देकर सरकार इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के सामने नाम उजागर करने से इंकार कर चुकी है। सवाल यह है कि क्या किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को ऐसी विदेशी संधियां करने का संवैधानिक अधिकार है, जो भारतीय संविधान को कमजोर करती हों। क्या कोई भी विदेशी संधि भारतीय संविधान और उससे पोषित सर्वोच्च अदालत से ऊपर हो सकती है? क्या यह विदेश हाथों के साथ संवैधानिक सौदेबाजी नहीं है? तो क्या ऐसी संधियों पर दस्तखत करने वाले देशद्रोही नहीं हैं? मजबूत जनलोकपाल के सवाल पर संवैधानिक सम्मान का स्वांग रचने वाली यह वही यूपीए सरकार है, जिसने इसी कालेधन के सवाल पर अहिंसक आंदोलनकारियों पर लाठियां तोड़ी थीं। सच तो यह है कि असली चरित्र उजागर होने के बाद सरकार मुंह दिखाने के काबिल नहीं बची है। सुप्रीम कोर्ट की पीड़ा को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अगर यह मामला जनहित याचिका के जरिए संज्ञान में नहीं आता तो काला धन सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। देश की एकता,अख्ांडता , अस्मिता और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक हो चुके इस कालेधन के मामले में सरकार ने अपने संवैधानिक दायित्व तक नहीं समङो। सुप्रीम कोर्ट की सख्त चेतावनी के बाद भी सरकार इस मुद्दे की 6 माह से अनदेखी कर रही थी। सरकार नहीं चाहती थी कि मामले का जिम्मा किसी विशेष जांच दल(सिट) को सौंपा जाए। इसीलिए उसने 2 माह पहले आनन फानन में हाईलेवल कमेटी बनाकर अपने 8 सदस्यीय टॉप ब्यूरोक्रेट्स बैठा दिए थे। देश के सबसे बड़े टैक्स चोर हसन अली के खुलासों के बाद भी जिम्मेदार सरकारी एजेंसियों ने राजनेताओं ,नौकरशाहों और कारोबारी हस्तियों से पूछताछ क्यों नहीं की? कालेधन पर लगाम लगाने के लिए तैयार किया गया प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक (डीटीसी) पर लोकसभा की स्थायी समिति एक साल से विचार ही कर रही है। अब अगर यह विधेयक मानसून सत्र में आया तो भी उसे असर में आने में एक साल लगेंगे। सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि पहले से ही बदनाम स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक को देश में कारोबार के लिए खुदरा बैंकिंग का लाइसेंस क्यों दिया गया? सरकार के पास विदेशों में जमा भारतीय कालेधन का हिसाब भले ही न हो लेकिन ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी जैसी वैश्विक संस्थाओं के अनुमान के अनुसार यह रकम 5 सौ अरब डालर से लेकर 14 सौ अरब डालर तक हो सकती है। अमेरिका ,जर्मनी और यूरोपीय देश जब अपने कालेधन की वापसी को लेकर सख्त हैं ,तब भारत का बेहद उदारवादी रवैया भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाता है।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

संसद के सामने सिविल सोसायटी


एक ताकतवर जनलोकपाल के खिलाफ सियासतदारों की नीयत साफ है। सरकार की ओर से आम सहमति के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक का सिर्फएक लाइन का निहितार्थ यही है कि लोकपाल के सरकारी मसौदे से सब सहमत हैं। अकेले अंदाज अलग -अलग हैं। संपादकों के बीच पीएम मनमोहन सिंह जहां प्रस्तावित लोकपाल की शान में कसीदे गढ़ते हैं, वहीं अपनी बिरादरी के बीच पलट कर मौन साध लेते हैं। और तो और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के इसी सवाल पर लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज हों या राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली सबकी बोलती बंद हो जाती है। वस्तुत: एक अप्रिय सत्य तो यह है कि हमाम में सब नंगें हैं। एक थाली के चट्टे-बट्टे। चोर-चोर मौसेरे भाई। कहना न होगा कि एक सांप नाथ तो दूसरा नाग नाथ। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष समवेत स्वर में अब फिक्र फकत इतनी है कि लोकपाल को शक्तियां देने से लोकतंत्र का संघीय ढांचा बिगड़ेगा। संविधान में संशोधन करने होंगे। क्या यह भारत के जनतांत्रिक संवैधानिक इतिहास में यह पहला संशोधन होगा? सरकारें जब-तब व्यापक जनहित की आड़ लेकर किस कदर संविधान संशोधन करती रही हैं। संशोधन ही संविधान को जीवंत और गतिशील बनाता है। इसमें शक नहीं कि कानून बनाना संसद का विशेषाधिकार है। यह भी सच है कि सिविल सोसायटी के कुछ सुझाव संवैधानिक लिहाज से व्यावहारिक नहीं हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि लोकतंत्र में जनपक्ष की भूमिका ही निर्थक है। एक बेहतर लोकतांत्रिक परंपरा के लिए क्या यह शुभ नहीं कि सरकार टकराव के बजाय ,बजरिए सिविल सोसायटी लोकपक्ष के सुझावों का ईमानदारी से सम्मान कर संसार के सामने विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र होने की नजीर पेश करे। सवाल यह भी है कि कानून से नियंत्रित कोई भी लोकपाल चाहे वह कितना ही स्वायत्त और शक्तिशाली क्यों न हो लोकतंत्र के लिए खतरा कैसे हो सकता है? सिविल सोसायटी स्वतंत्र लोकपाल चाहती है,स्वछंद नहीं। एक मजबूत जनलोकपाल के खिलाफ लामबंद सियासी साठगांठ के कुल जमा अपने-अपने नुकसान नफे हैं। सरकार इसे कानूनी बाधाओं और सियासी दांवपेंचों में उलझा कर जहां एक बार फिर से दबाने की कोशिश में है, वहीं विपक्ष विधेयक को शीतकालीन सत्र तक टालने के प्रयास में है। क्योंकि अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव हैं। इस बीच सरकार की एक और कोशिश सिविल सोसायटी को संसद के सामने लाकर खड़ा करने की भी है। खासकर अण्णा निशाने पर हैं अगर वह 16 अगस्त से अनशन पर जाते हैं तो उनकी इस मुहिम को सरकार संसदीय व्यवस्था के लिए खतरनाक मानते हुए लोकतंत्र पर प्रहार केआरोपी के रूप में प्रचारित करेगी।अण्णा के मजबूत जनाधार के खिलाफ चतुर यूपीए सरकार कानून और संवैधानिक मूल्यों की दुहाई को ढाल बनाकर आक्रामक रणनीति अपनाने की तैयारी में है। सियासी स्वांग कुछ भी हो लेकिन संकेत बताते हैं कि जनलोकपाल की राह आसान नहीं है। इसके घोर राजनीतिकरण से जनलोकपाल का जन हितकारी लोकपक्ष लगभग गायब हो चुका है। ताजा परिदृश्य यही है कि तनातनी के बीच सिविल सोसायटी संसद के सामने खड़ी है और सरकार उसे घेर कर मारने की साजिश में लगभग कामयाब है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

संस्कृत से दुराग्रह और देशद्रोह



संस्कृत से दुराग्रह क्या देशद्रोह नहीं? थोड़ी देर के लिए यह सवाल हास्यास्पद लग सकता है,लेकिन संस्कृत के संवैधानिक संरक्षण और इसके प्रति सर्वोच्च अदालत का सम्मान कमोबेश ऐसा ही संगीन सवाल उठाता है। संसद से पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति का त्रिभाषायी फामरूला हो या यूजीसी के दिशा निर्देश या फिर संस्कृत कमीशन की सिफारिशें सब को दर किनार करते हुए सीबीएसई ने एक ताजा फरमान जारी कर 9वीं-10वीं के पाठ्यक्रम से संस्कृत को बाहर कर दिया है। इस आदेश के बाद पब्लिक स्कूलों ने संस्कृत की जगह जर्मन और फ्रेंच पढ़ानी शुरू कर दी है। बोर्ड की इस द्विभाषा नीति से दस हजार वर्षो से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की संवाहिका रही देववाणी संस्कृत अपने ही घर में पराई हो गई है। 1994 की 4 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में स्कूली पाठ्यक्र म में संस्कृत भाषा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया था कि देश की सीमा की तरह उसकी सांस्कृतिक रक्षा भी मुख्य राष्ट्रीय दायित्व है। संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन का उद्ेश्य देश की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करना है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीएसई में संस्कृत को एक वैकिल्पक विषय के रूप में पढ़ाने का आदेश दिए थे। क्या सीबीएसई के पाठय़क्रम निर्माताओं को यह भी नहीं मालूम कि देश की संस्कृति को स्वर देने वाली हिंदी शब्दावली के विकास में संस्कृत के योगदान के चलते इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया है? भारतीय संसद द्वारा स्वीकृत संस्कृत कमीशन की राय में संस्कृत भाषा राष्ट्रीय अस्मिता है। यह देश की सांस्कृतिक परंपराओं का ज्ञान कराती है। 1988 की यूजीसी की रिपोर्ट के अनुसार चरित्र निर्माण, बौद्धिक विकास तथा राष्ट्रीय धरोहर के संरक्षण में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। सब जानते हैं कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वयं राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति में संस्कृत शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। यह कैसी विडंबना है कि जब अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों में संस्कृत का पठन- पाठन निरंतर लोकप्रिय हो रहा है, तब अपने ही देश में यह साजिश की शिकार है। कभी मातृभाषा तो कभी क्लासिकल भाषा के नाम पर संस्कृत को मुख्यधारा से बाहर करने की यह साजिश कोई नई बात नहीं है। 1986 में नई शिक्षा के निर्माण के दौरान तो सीबीएसई ने संस्कृत विषय को ही समाप्त कर दिया था। सवाल यह है कि क्या सीबीएसई बोर्ड भारतीय संविधान और सर्वोच्च न्यायालय से ऊपर है। बात -बात में संविधान की दुहाई देने वाली यूपीए सरकार का क्या यह दायित्व नहीं कि वह संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण करे और इस अपराध को इरादतन राष्ट्रदोह के रूप में संज्ञान में लेते हुए देशद्रोहियों के खिलाफ मुकदमा चलाए ,अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो क्या वह ऐसे तत्वों का पोषण करने की अपराधी नहीं जो सांस्कृतिक हत्या की साजिश रच कर देश को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। धर्म और संस्कृति के नाम पर वोट की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल इस मसले पर रहस्यमयी अंदाज में खामोश क्यों हैं? बहरहाल, सीबीएसई का यह संविधान विरूद्ध भाषाई दुराग्रह समझ से परे है? बेहतर हो कि संस्कृत को जन सामान्य से दूर करने और इसके राष्ट्रीय प्रसार पर प्रतिबंध की गहरी साजिश को वक्त रहते समझ लिया जाए।