गुरुवार, 30 जून 2011

मनमोहन का मीडिया मैनजमेंट


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मानें तो झगड़े की असली जड़ खंडित जनादेश है। जिसने अपनी दम पर केंद्र में कांग्रेस की ताजपोशी के सपने तार-तार किए हैं। जिसने देश में यूपीए की साझा सरकार लाद रखी है। अब, अगर गठबंधन की मजबूरियों के आगे प्रधानमंत्री लाचार हैं, तो इसमें उनका क्या कसूर है? जनतंत्र में जनता के लिए जनता के द्वारा जनता की सरकार का निर्माण आखिर जनमत से ही तो होता है। अब जैसा भी है,जनादेश सिर माथे पर है। ऐसे में नैतिक जिम्मेदारी लेकर अगर मनमोहन पद से इस्तीफा देने की नहीं सोचते हैं तो यह भी उसी जनादेश के प्रति उनका नैतिक सम्मान ही है ,क्योंकि इससे सरकार हिल सकती है। वैसे भी महंगाई की मार से दोहरी हो रही जनता असमय एक और चुनाव बर्दाश्त करने की हालत में नहीं है। पिंट्र मीडिया के चुनिंदा संपादकों की इस बैठक में प्रधानमंत्री से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि एक नामांकित सांसद के रूप में आप आखिर किस निर्वाचित जनादेश का परिणाम हैं? अगर टू-जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों की हद तक गठबंधन सरकार लाचार है, तो क्या उसे सत्ता में बने रहने का अधिकार है? प्रधानमंत्री कहते हैं, आवंटन में भ्रष्टाचार का आकलन मुमकिन नहीं है। सवाल तो यह है कि जब वित्त और दूरसंचार मंत्रलय ने पहले आओ पहले पाओ की नीति बदल कर बोली के जरिए टू-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस देने की सिफारिश की थी तो आपने किस विवशता के कारण इसे मानने से इनकार कर दिया था? मनमोहन ने कहा कि कालेधन को स्वदेश लाने के हर संभव प्रयास कि ए जाएंगे? मगर उनसे यह कौन पूछे कि कालेधन की स्वदेश वापसी की प्रक्रिया और समय सीमा क्या होगी? उनसे किसी ने यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी कि अगर बाबा रामदेव के आंदोलन के साथ पुलिस का हिंसक बर्ताव दुर्भाग्य पूर्ण था तो आखिर किस मजबूरी के चलते पुलिस को गुंडागर्दी की इजाजत दी गई? अर्थशास्त्र में माहिर मनमोहन ने स्वीकार किया कि महंगाई से लड़ने के सभी हथियार उनके पास नहीं हैं । अब उनसे यह भी कौन पूछे कि महंगाई के महासमर में आप अगर आप निहत्थे हैं, तो इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? और किस जादुई छड़ी की दम पर आप जल्दी ही इसे 7 प्रतिशत पर लाने वाले हैं? पीएम ने कहा वह दोषी हैं मगर उतने नहीं.. प्रधानमंत्री की मीडिया नीति में आया ताजा बदलाव बताता है कि सचमुच उन्हें अपनी भूलों का तत्वज्ञान हो गया है। सात साल में यह तीसरा मौका था, जब बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया से मुखातिब हुए हैं। इसी साल फरवरी में वह इलेक्ट्रानिक मीडिया और पिछले साल सितंबर में प्रिंट मीडिया के संपादकों से रूबरू हुए थे। अब हर हफ्ते मीडिया से मुलाकात का इरादा है। भ्रष्टाचार खासकर जनलोकपाल बिल पर सरकार की घेराबंदी के बीच प्रधामंत्री मनमोहन सिंह से चुप्पी तोड़ने की दरकार थी। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर उनकी निजी राय का उत्सुकता से इंतजार था। यह दीगर बात है कि उनकी स्वीकारोक्ति में कोई नई बात नहीं है। इससे पहले पीएम की ही हैसियत से अटल विहारी वाजपेयी और उनसे भी पहले मोरार जी देसाई भी लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने के पक्षधर थे, लेकिन इन सब का भी एक ही धर्मसंकट था। मंत्रीमंडल के सहयोगी ना तो तब इसके पक्षधर थे और ना ही अब हैं।

बुधवार, 29 जून 2011

उम्मीदों की उड़ान


राजधानी भोपाल के राजाभोज विमान तल को इंटरनेशनल टर्मिनल की सौगात से आज अगर देश के दिल मध्यप्रदेश की आंखों में ग्लोबल होने के सप्तरंगी सपने तैर रहे हैं ,तो इसके पीछे छिपी है,उम्मीदों की ऊं ची उड़ान..बेशक, यह सौगात मध्यप्रदेश के वैश्विक विकास का मॉडल है। प्रादेशिक प्रगति की प्रतीक है और तेज आर्थिक विकास का पर्याय भी है। अंतरराष्ट्रीय राजाभोज एयरपोर्ट अब देश के प्रमुख हवाई अड्डों में शुमार है। अभी तक भोपाल से सिर्फ दिल्ली-मुंबई समेत देश के सिर्फ 8 शहरों के लिए हवाई सेवा उपलब्ध थी ,लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय उड़ानों का रास्ता साफ है। दरअसल,उपलब्धि के इस सुपर हाईवे ने विश्व बिरादरी के लिए पर्यटन उद्योग के अनगिनत रास्ते खोल दिए हैं। पर्यटन उद्योग की अपरमित संभावनाओं वाला मध्यप्रदेश अब देश के मेगा टूरिज्म सर्किट से सीधे जुड़ गया है। देश में सालाना 15 फीसदी की रफ्तार से विदेशी मेहमानों की तादाद बढ़ रही है। दुनिया में भारत पांच ऐसे शीर्ष पर्यटक स्थलों में से एक है,जहां हर साल 8.8 प्रतिशत की दर से पर्यटन उद्योग विकसित हो रहा है। इस उद्योग से सालाना 25 से 30 हजार करोड़ की विदेशी मुद्रा अजिर्त करने वाला भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। देश की 6 प्रतिशत श्रमशक्ति को पर्यटन से रोजगार मिल रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि मध्यप्रदेश में पर्यटन उद्योग के विकास से ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अपार अवसर बढ़ेंगे। तथ्य तो यह है कि प्रदेश का हर संभाग पर्यटन का मेगा सर्किट बन सकता है। पांच लोक संस्कृतियों के समावेशी संसार मध्यप्रदेश का लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, कला, बोली और परिवेश ही नहीं अपितु जनजातियों की आदिम संस्कृति का विशाल फलक विदेशी सैलानियों को सदैव लुभाता रहा है। विंध्य - सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाएं इसे जहां नैसर्गिक बनाती हैं,वहीं नर्मदा समेत 6 बड़ी नदियों के उद्गम इसे और भी विहंगम बनाते हैं। कालिदास और तानसेन। कला,शिल्प और अद्भुत स्थापत्य। राजतंत्र का वैभवशाली इतिहास। बांधवगढ़,कान्हा, माधव और पन्ना जैसे नेशनल पार्क। पंचमढ़ी, भेड़ाघाट, अमरकंटक, खजुराहो, मांडू,ओरक्षा,ग्वालियर,चंदेरी, इंदौर,सांची, भीम बैठका,उदय गिरि,मैहर,चित्रकूट , महाकालेश्वर,ओंकारेश्वर और भोजपुर। प्रदेश में वैभवपूर्ण पर्यटन की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। सरकार अगर चाहे तो वह प्रदेश के सभी टूरिज्म सर्किटों को एयर टैक्सी के जरिए जोड़ कर देश को टूरिज्म स्टेट की सौगात सौंप सकती है। सामरिक लिहाज से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रदेश के तमाम बड़े शहरों में बनाई गई हवाई पट्टियों का विकसित कर इन्हें निकटतम हवाई अड्डों से जोड़ा जा सकता है। प्रदेश के भोपाल,इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर में यह नेटवर्क पहले से मौजूद है। राज्य में हवाई सेवा के विस्तार के लिए भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण और राज्य सरकार के साझा प्रयास भी सराहनीय हैं। प्राधिकरण ने देश के जिन 35 हवाई अड्डों के विस्तार की योजना बनाई है, उनमें प्रदेश के भोपाल,इंदौर, खजुराहो और जबलपुर शामिल हैं। भोपाल के नेशनल एयरपोर्ट का विस्तार तो कुछ यूं किया जा रहा है, ताकि भविष्य में इसे कार्गो कॉम्लेक्स के रूप विकसित किया जा सके। कहना न होगा कि प्रदेश के औद्योगिक और वाणिज्यिक विकास की दिशा में भी यह सौगात मील का पत्थर साबित होगी।

मंगलवार, 28 जून 2011

सरकारी डॉक्टरों का इलाज कीजिए


झूला डालने की कोशिश में सात साल के अंश का पैर फिसला और उसके बाएं हाथ की कोहनी की हड्डी चटक गई। राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल हमीदिया के जूनियर डाक्टरों ने आनन-फानन में पक्का प्लास्टर बांधा और फटाफट छुट्टी कर दी। असहनीय दर्द के बीच जब अंश के नाखून नीले और हाथ का रंग काला पड़ने लगा तो उसके हैरान पिता ने फिर से हमीदिया की शरण ली। पता चला अंश को तो गैंगरीन हो गया है। अच्छा खासा अंश अब विकलांग है। उसका बायां हाथ काट देने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं था।..इसी हमीदिया के शिशु वार्ड में भर्ती नवजात आरूषि इन्क्यूबेटर में सिकाई के दौरान बुरी तरह से जलकर जख्मी हो गई।.. गंजबासौदा के सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ने बोबेरॉन की जगह पेंसिलिन का इंजेक्शन देकर रामस्वरूप से उसकी जिंदगी छीन ली। धरती के इन कलयुगी भगवानों की ऐसी जानलेवा करतूतों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है। आए दिन ऐसी सुर्खियां अब सरेआम हैं। सवाल यह है कि क्या सरकारी क्षेत्र की इस हद तक अराजक चिकित्सकीय कुव्यवस्था का मर्ज अब वाकई लाइलाज हो चुका है? सच तो यह है कि राज्य में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का अधोसंरचना विकास अभी भी बाधित है। मानव विकास प्रतिवेदन की मानें तो राज्य में 26 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अभाव है। गंभीर स्वास्थ्य संकेतांकों के बीच यह अचरज की बात नहीं कि मध्यप्रदेश सरकार की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं है। स्वास्थ्य नीति के नाम पर सरकार के पास 9 साल पुराना डेनमार्क की कंपनी डेनिडा का एक ड्राफ्ट है मगर, यह प्रारूप भी खराब स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सरकार के बजाय नागरिकों को जिम्मेदार मानता है। यह प्रारूप स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की भी सिफारिश करता है। अलबत्ता बाजारू दबाव के चलते राज्य की अपनी दवा नीति जरूर है। उधर,शासकीय चिकित्सा व्यवस्था के समनांतर निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं का एक ऐसा बड़ा बाजार खड़ा हो चुका है, जो सरकारी क्षेत्र के डाक्टरों को हमेशा लुभाता रहा है। कौन नहीं जानता के पैसे के लोभ में सरकारी क्षेत्र से निजी क्षेत्र की चिकित्सा व्यवस्था को वॉकओवर मिलता है। यही वजह है कि सरकारी अस्पताल चिकित्सा और सुविधाओं के मामले में महज नाम के रह गए हैं। निजी क्षेत्र की चिकित्सा सेवाएं सरकारी डाक्टरों के लिए धन के असंख्य स्त्रोत खोलती हैं। मनमानी फीस,महंगी जांचें और जैनेरिक दवाओं को खपाने में बतौर कमीशन मनमानी मुनाफे ने चिकित्सकों के भाव आसमान पर पहुंचा दिए हैं। क्या, हमीदिया प्रदेश के किसी भी सरकारी अस्पताल के स्टाफ पर सरकारी नियंत्रण जैसा कोई दबाव नहीं है। पैसे के लिए ऊपर से नीचे तक गठजोड़ काम करता है। नैतिकता और संवेदनशीलता की कोई गुंजाइश नहीं है। कहने को तो तमाम कानून कायदे हैं, लेकिन सब के सब बेमानी हैं। जांच के नाम पर लीपापोती,लामबंदी और सांठगांठ है। प्रायवेट प्रैक्टिस पर पाबंदी हो या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं देने की वैधानिक बाध्यता या फिर चिकित्सा महाविद्यालयों में जूनियर डाक्टरों की एलानिया गुंडागर्दी। तलख मिजाजी और बदसलूकी के लिए मशहूर सरकारी डॉक्टरों के पास पेसेंट और उसके अटेंडेंट के लिए सिर्फ एक ही जुमला होता है-डाक्टर तुम हो,या मैं..

सोमवार, 27 जून 2011

गरीबों की भी सुन लो सरकार



बेलगाम महंगाई के मौजूदा दौर में पेट्रोलियम पदार्थो की दर वृद्धि के एक और झटके के बीच यूपीए सरकार की टैक्स मद में कटौती और अतिरिक्त आर्थिक बोझ स्वयं बर्दाश्त करने का साहसिक फैसला वास्तव में स्वागत योग्य है। देश के कांग्रेस शासित राज्यों में ऐसे ही उपायों को अनिवार्य रूप से अपनाए जाने के निर्देश भी काबिले तारीफ हैं। सर्वाधिक साधुवाद की पात्र तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनज्री हैं, जिन्होंने राज्य की आम जनता के व्यापक हित में रसोई गैस से उपकर वापस लेने के फैसले पर देर नहीं लगाई। यूपीए सरकार के महत्वपूर्ण सहयोगी दल की मुखिया ममता डीजल,पेट्रोल और घरेलू गैस में मूल्य वृद्धि के शुरू से खिलाफ रही हैं। इसी तरह प्रमुख विपक्षी दल भाजपा भी वामदलों के साथ पेट्रोलियम उत्पादों के भाव बढ़ाने के खिलाफ है। सवाल यह है कि मध्यप्रदेश समेत देश के दीगर राज्यों की भाजपा सरकारें क्या आम आदमी को महंगाई की मार से राहत देने के इस संवेदनशील मसले पर ऐसी ही दरियादिली दिखाएंगी? या फिर भाजपा की कथनी और करनी का एक और गहरा फर्क असली चरित्र के रूप में सामने आएगा? प्रदेश के वित्त मंत्री राघव जी पहले ही कह चुके हैं कि अगर केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थो पर एक्साइज डय़ूटी घटाती है, तो राज्य सरकार भी ऐसा करने पर विचार कर सकती है। सब जानते हैं कि केंद्र सरकार ने कच्चे तेलों और डीजल पर कस्टम तथा एक्साइज डय़ूटी घटाकर सरकारी खजाने के लिए सालाना 49 हजार करोड़ के बजट संकट की मुसीबत मोल ले ली है। यहां गौर तलब तथ्य यह भी है कि पेट्रोलियम पदार्थो के मद से देश में सर्वाधिक टैक्स वसूलने वाली मध्यप्रदेश सरकार भी अगर ऐसा ही साहसिक कदम उठाती है, तो इससे उसकी माली हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।आर्थिक मामलों के जानकारों की मानें तो डीजल,केरोसिन और एलपीजी के दामों की हालिया दर वृद्धि से राज्य शासन को टैक्स के जरिए सालाना 265 करोड़ का अतिरिक्त लाभ होगा अगर सरकार अकेले इसी वृद्धि को कर मुक्त करने का नैतिक साहस दिखा दे तो इससे प्रति सिलेंडर पर 39 रुपए और प्रति लीटर डीजल पर 8 रुपए की राहत फौरन मिल सकती है। वैसे भी सरकार को अकेले डीजल से हर साल 28 सौ करोड़ और एलपीजी से 75 करोड़ रुपए की घर बैठे आमदनी होती है। राज्य सरकार इन दोनों मदों से वैट और इंट्री टैक्स के रूप में 32.39 प्रतिशत कर वसूलती है। बेहतर तो यह हो कि सरकार इंट्री टैक्स को भी न्यूतम करके गरीबों की मुश्किलें आसान कर सकती है। देश के ज्यादातर राज्यों में यह कर या तो लागू नहीं है या फिर नहीं के बराबर है। सरकार को यह भी समझना चाहिए कि महंगाई की मार से आम आदमी को निजात अकेले केंद्र का विषय नहीं है। राज्य ऐसे तर्क देकर अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता है। प्रदेश में प्रति लीटर पेट्रोल पर 13 रुपए का टैक्स लग रहा है। प्रदेश में आम आदमी के मासिक खर्चे में10 फीसदी का इजाफा हुआ है। देश की राजधानी दिल्ली के मुकाबले भोपाल में रोजाना 6 रुपए के मान से ज्यादा महंगाई का अनुमान है। अकेले डीजल में वृद्धि से माल भाड़ा बढ़ने के कारण फल और सब्जी जैसी रोजमर्रा की जरूरी खाद्य वस्तुओं में 10 प्रतिशत महंगाई का अतिरिक्त बोझ बढ़ा है। ऐसे में सिर्फ राज्य सरकार से ही राहत की दरकार है।

शनिवार, 25 जून 2011

पेट्रोलियम कंपनियों की सरकार


पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी कुछ भी कहें,लेकिन यूपीए सरकार बगैर कुछ सोचे-समङो एक बार फिर से अपनी चहेती पेट्रोलियम कंपनियों के सामने बिछ गई है। पेट्रोलियम पदार्थो के लिए गठित अधिकार प्राप्त मंत्री समूह (ईजीओएम) ने यह फैसला लेने से पहले आम आदमी के हितों की फिक्र नहीं की है। असलियत तो यह है कि सरकार की सारी चिंता तेल विपणन कंपनियों पर ही केंद्रित है। उलटे आम आदमी के हितों के सवाल पर सरकार इसे मामूली इजाफा बताकर आग में घी डालने का काम कर रही है। सरकारी गणित के मुताबिक इससे पेट्रोलियम कंपनियों को चालू माली साल के दौरान 21 हजार करोड़ की राहत मिलेगी मगर बावजूद इसके लागत से कम कीमत पर उत्पाद बेचने के कारण एक लाख 20 हजार करोड़ का नुकसान बराबर बना रहेगा। यानि घाटे की आड़ में सरकार अभी और दर वृद्धि की गुुंजाइश भी बना कर चल रही है। एक और सरकारी दावे पर यकीन करें तो पेट्रो पदार्थो की कीमतों को काबू में रखने के लिए कच्चे तेल पर लगने वाले पांच फीसदी सीमा शुल्क को खत्म कर दिया गया है। डीजल पर सीमा शुल्क 7.5 प्रतिशत से घटाकर 2.5 कर दिया गया है। इसके अलावा उत्पाद शुल्क को भी 4.60 रु पए प्रति लीटर से घटाकर दो रु पए कर दिया गया है। यानि सरकार यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही है कि उसे इन शुल्कों में कटौती के कारण वित्तीय वर्ष के दौरान 49 हजार करोड़ का राजस्व घाटा होगा। इससे सीमा शुल्क में 26 हजार करोड़ और उत्पाद शुल्क में23 हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान है। सरकार अब इसी मामले में राज्य सरकारों से भी ऐसी उम्मीद रखती है। अपने बचाव में सरकार ने साफ किया है कि डीजल,केरोसिन और रसोई गैस के मूल्यों में बढ़ोत्तरी कोई राजनैतिक फैसला नहीं है वरन यह एक आर्थिक मामला है, लेकिन पेट्रोलियम कंपनियों पर मेहरबान यूपीए सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सभी पेट्रोलियम पदार्थ आम आदमी के रोजाना उपभोग से जुड़े हुए हैं और अप्रकट रूप से ये सीधे खाद्य वस्तुओं को प्रभावित कर महंगाई को फुटबाल की तरह उछाल देते हैं। जाहिर है सरकार की सिर फुटौव्वल तय है। इस मामले में सरकार के प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल, वामदलऔर मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी लामबंद हैं। सवाल यह भी है कि अगर टैक्स घटाने के बाद भी तेल कंपनियों को डीजल पर प्रति लीटर18 रु पए ,केरोसिन पर 29 रु पए और पेट्रोल पर प्रति लीटर 1.99 रु पए का नुकसान हो रहा है तो पाकिस्तान जैसे दुनिया के दीगर देशों में आम उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोलियम के यही पदार्थ 30 से 50 फीसदी सस्ती कीमतों पर किस जादुई करामात से उपलब्ध हैं ? यह तब हो रहा है, जब दुनिया के कमोवेश सारे देशों का एक ही तेल बाजार है और आपूर्ति की शर्ते भी समान हैं। सरकार अब यह कह कर अपना पल्ला झाड़ रही है कि पेट्रोलियम कंपनियां तेल के मूल्य स्वयं तय करती हैं, और इसमें सरकार का कोई जोर नहीं है ,लेकिन सरकार यह भूल रही है कि उसने पेट्रोलियम पदार्थो के दामों को नियंत्रण मुक्त करने के दौरान शून्य शुल्क का वादा किया था । सरकार की वादा खिलाफी आज अगर आम आदमी के लिए आफत बन गई है तो कल स्वयं के लिए फांसी का फंदा भी बनेगी।

कुत्ते की दुम पाकिस्तान





यह तो होना ही था। कश्मीर मसले पर भारत के खिलाफ प्रधान मंत्री यूसुफ रजा गिलानी के जहर बुङो दो टूक बयान ,दोनों देशों के बीच चल रही विदेश सचिव स्तरीय महत्वपूर्ण आखिरी बैठक के नतीजों का भविष्य पहले ही तय कर चुके थे। दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता के लिहाज से यह बैठक इसलिए भी महत्वपूर्ण थी ,क्योंकि इसी आधार पर अगले माह होने जा रही भारत-पाक के विदेश मंत्रियों की बैठक का एजेंडा तय होना था। बैठक के ठीक एक दिन पहले पाक अधिकृत कश्मीर पहुंच कर गिलानी का फिर वही विलाप कि कश्मीर मुद्दा पाकिस्तान की जीवन रेखा है और इसी बीच विदेश मंत्री हिना रब्बानी खान की यह तल्खी कि भारत-पाक के बीच सिवाय कश्मीर के कोई और मसला ही नहीं है। इस बात को और भी पुख्ता करता है कि पाकिस्तान अंतत: कुत्ते की ही दुम है। दरअसल ,भारत के साथ दोस्ताने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। लिहाजा भारत को जहां बातचीत के जरिए हर मसले का समाधान दिखता है , वहीं पाक को बातचीत की नजर से किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं दिखती है। वस्तुत: दोनों पक्षों के बीच परस्पर विश्वास की बहाली, मैत्री पूर्ण संबधों का विकास और शांति सुरक्षा की गारंटी बुनियादी मसले हैं। इन्हीं बाधाओं को दूर करने के इरादे से भारत ने मुंबई बम ब्लास्ट के बाद समग्र बातचीत के रास्ते खोले थे। पिछले साल थिंपू में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात के साथ शुरू हुए सकारात्मक बातचीत के दौर से एक बार फिर से यह उम्मीद बंधी थी कि शायद पाकिस्तान अब अपनी हरकतों से बाज आ जाएगा लेकिन लगता नहीं कि अपनी जमीन से भारत के खिलाफ आतंकी अभियान और कश्मीर पर अनाधिकृत स्वामित्व सबसे बड़ा झगड़ा है। उधर,पाकिस्तानी हुक्मरानों को लगता है कि वे अपनी भारत विरोधी नीतियों से ही राजनैतिक रोटियां सेंक कर सत्ता का सुख भोग सकते हैं। यही वजह है कि भारत के मामले में पाकिस्तानी नेतृत्व परंपरागत तौर पर सदैव यथास्थितिवादी रहा है। वहां वोट की राजनीति के लिए भारत का हिंसक और आक्रामक विरोध सियासतदारों का अहम एजेंडा है। पाकिस्तान में कश्मीर के राजनीतिकरण से आम पाकिस्तानी की स्थाई तौर पर यह धारणा बन गई है कि भारत उनका दुश्मन नंबर वन है। दरअसल नापाक इरादों की बदौलत अपने ही पापों से पस्त पाकिस्तान से सिर्फ इतनी ही उम्मीद की जा सकती है? बेहतर हो कि अस्तित्व के लिए अपने आप से ही लड़ रहा यह विफल राष्ट्र कश्मीर की ओर आंख उठाने से पहले अपना ही गिरेबान देखे। पाकिस्तान को यह समझना चाहिए कि इस भीषण संकट से उबरने के लिए उसे क्रांतिकारी बदलाव करने होंगे, जिसकी हाल फिलहाल गुंजाइश नहीं दिखती है। सेना के आतंकी आचरण,आतंकवादियों की समनांतर सरकार और कठमुल्लेपन पर केंद्रित रूढ़वादी धार्मिक धारणाओं के शिकार पाकिस्तान को यह भी समझना चाहिए कि अगर जिंदा रहना है तो उसे भारत का अनुसरण करना ही होगा। इसके विपरीत पड़ोसी पाकिस्तान के मामले में भारत की ओर से जरूरत समझदारी और सतर्कता के साथ संयमित रहने की है। आशय यह कि पाकिस्तान के साथ भारत की गजब की कूटनीति ही वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।

शुक्रवार, 24 जून 2011

लोकपाल का सच


जुलाई के दूसरे हफ्ते में ही संसद का मानसून सत्र बुलाने की प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की मंशा पर फौरी तौर पर सरकार ने भले ही पानी फेर दिया हो लेकिन इससे किसी की भी मुश्किलें आसान होने वाली नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि अकेले मजबूत जन लोकपाल बिल के मसौदे पर असहमति गंभीर चुनौती नहीं है। एक मिनट के लिए अगर उभय पक्षों के बीच सहमति की कोई जादुई राह निकल भी आती है, तो इसके कानूनी पहलू और सियासी बाधाएं इतनी जटिल हैं कि उनसे पार पाना फिलहाल यूपीए जैसी गठबंधन सरकार के लिए संभव नहीं है,क्योंकि इस पर अमल से संविधान का बुनियादी ढांचा प्रभावित होगा। यानि लगभग डेढ़ दर्जन अनुच्छेद संशोधित करने होंगे। एक संपूर्ण स्वायत्त और शक्तिशाली जनलोकपाल के लिए सिविल सोसायटी की ओर से सरकार को 40 बिंदुओं का मसौदा सौंपा गया था, लेकिन सरकार इनमें से महज 11 पर सहमत है। सरकार लोकपाल को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं रखना चाहती है। सरकार चाहती है कि प्रस्तावित 10 सदस्यीय लोकपाल में सर्वाधिक 7 सदस्य राजनैतिक पृष्ठीभूमि से हों। लोकपाल को पदच्युत करने के मामले में भी सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार भी अपने पास ही सुरक्षित रखना चाहती है। सरकारी मंशा से साफ है कि वह देश में लोकपाल को राज्यों के लोकायुक्त की हैसियत से अलग नहीं कर पा रही है। असहमति के मुद्दों पर कैबिनेट हो या फिर सर्वदलीय सुझाव इस कवायद से भी कोई हल निकलता नहीं दिख रहा है। वस्तुत: सरकार की तमाम कोशिशें अंतत: इन सबों के ही हितों का पोषण करती हैं। प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर सरकार ने बीच का जो रास्ता निकालने की कोशिश की है, उससे लगता नहीं कि बात आगे बढ़ेगी। पीएम को लोकपाल के दायरे में लाने की बात कोई नई नहीं है। जैसे आज यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पदेन स्वयं को लोकपाल के दायरे में लाने से सहमत हैं, वैसे ही पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और इससे पहले जनता सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। तीन अलग-अलग प्रधानमंत्रियों की इस मामले में अद्भुत एकरूपता का दूसरा पहलू यह भी है कि कभी पीएम को लोकपाल के दायरे में लाने से सहमत रहे यूपीए सरकार के दूसरे नंबर के प्रभावशाली केद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी आज इस बात से असहमत हैं। यह अचरज एकदम वैसा ही जैसे सिविल सोसायटी के सूत्रधारों में से एक शांति भूषण 1977 की जनता सरकार में कानून मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में नहीं लाने के पक्षधरों का नेतृत्व कर रहे थे। आशय यह है कि प्रधानमंत्री की सहमति और सेनापतियों की असहमति के महाशोर के बीच असल मुद्दा गायब करने की कुटिल सियासी चाल कोई नई बात नहीं है। यह इत्तफाक नहीं कि संसद के भीतर सांसदों के आचरण और अफसरशाही को भी लोकपाल के दायरे में लाने की बात उस दौर में चल रही है, जब 90 से ज्यादा सांसदों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। तकरीबन 180 तो ऐसे सांसद हैं जो किसी न किसी रूप में आपराधिक चारित्र रखते हैं। इतना ही नहीं 375 से ज्यादा आईएएस और 425 से ज्यादा आईपीएस अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच चल रही है।

गुरुवार, 23 जून 2011

मानसून: आया उम्मीदों का मौसम


देश में मानसून का आगाज भले ही झमाझम हो। भारतीय किसान भयभीत और बाजार बेचैन है। यह चिंता नाहक नहीं है। अबकि सामान्य से भी 4 फीसदी कमजोर बारिश की भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की भविष्यवाणी असल में खतरे की ही घंटी है। खाद्य वस्तुओं पर महंगाई 7 फीसदी की रफ्तार से हावी है। धान,दलहन और तिलहन जैसी 65 प्रतिशत जरूरी जिंसों की पैदावार इसी मानसून पर निर्भर करती है। अगर सीजन के दौरान मंडियों में इनकी आवक कमजोर पड़ी तो इससे सिर्फ दामों में उछाल ही नहीं आएगा, सरकार के अनुदान बिल भी बढ़ेंगे। आयात की नौबत आई तो पहले से ही महंगाई से आहत आम आदमी पर तो जैसे आफत ही आ जाएगी। केंद्रीय वित्त मंत्री दादा प्रणव मुखर्जी ठीक ही कहते हैं, घबराने की जरूरत नहीं । सरकार का क्या? आदतन महंगाई का ठीकरा मानसून के सिर फोड़कर सरकार तो किनारे हो जाएगी? लेकिन हकीकत तो यही है कि अगर मौसम का मिजाज बिगड़ा तो हालात संभाले नहीं संभलेंगे। मौसम महकमे के अनुमान कहते हैं,इसका सीधा असर यूपी और पंजाब की उपजाऊ बेल्ट की कमर तोड़ सकता है। वस्तुत: मानसून उम्मीदों का मौसम है। कौन नहीं जानता कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और मानसून उसका प्राण। देश में 65 फीसदी कृषि और 80 प्रतिशत आबादी आज भी मानसून की बारिश पर निर्भर है। महंगाई से निजात का नुस्खा भी यही है। कदाचित यही वजह है कि कृषि और खाद्य सुरक्षा के नाजुक मामले में मानसून पर भारत की अति निर्भरता हमेशा चिंता का विषय रही है। भारतीय खेती अगर आज भी मानसूनी जुआ है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? अब बरसात के चौमासे में मात्र सौ दिन बरसात होती है। सच तो यह है कि सरकारी स्तर पर सिंचाई के क्षेत्र में को निवेश को कभी भी प्रोत्साहित नहीं किया गया है। यह जानने के बाद भी कि बिजली उत्पादन, भूजल रिचार्ज, नदियों का पानी भी मानसून पर निर्भर है, कभी भी बारिश के पानी के प्रबंधन के प्रयास नहीं किए गए हैं। देश में कृषि के लिए आज भी महज 40 फीसदी कमांड क्षेत्र ही उपलब्ध है। मानसून पर अति निर्भरता इस कृषि प्रधान देश की विवशता है लेकिन एक विडंबना यह भी है कि मानसून के पूर्वानुमानों के मामले में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और उसके विज्ञानी भी बहुत ज्यादा भरोसे के काबिल नहीं है। हाल ही के 17 अनुमानों में इनकी सिर्फ 5 भविष्यवाणियां ही सच साबित हुई हैं। चालू मानसून सीजन के लिए इसी मौसम महकमे ने अपने शुरूआती अनुमान में सामान्य बारिश का एलान किया था। दो माह बाद अब कमजोर बरसात का अंदाजा है। मौसम की भारतीय भविष्यवाणियां प्राय: उलटी पड़ जाती हैं। इसके विपरीत अमेरिका और ब्रिटेन में लोग इन्हीं भविष्यवाणियों के भरोसे घर से निकलते हैं। विशेषज्ञों की मानें तो भारत में फिलहाल ऐसा मुमकिन नहीं है। विदेशों में एक या दो क्लाइमेट जोन हैं। वहां पूरे साल मौसम एक सा रहता है। जबकि भारतीय भौगोलिक स्थिति और परिस्थितिकी ऐसी है जो कृषि के लिहाज से देश में कुल 130 क्लाइमेटिक जोन बनाती है। फिर भी सभी जोन में सुपर कंप्यूटर और कलर डॉप्लर राडार लगाकर मौसम विभाग का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। काश, चालू मानसून सीजन के लिए मौसम महकमे का सामान्य से 4 प्रतिशत कम बारिश का पूर्वानुमान एक बार फिर से उलट जाए। बरसात कुछ यूं हो कि खेत हरे हो जाएं और धन-धान्य से भर जाएं खलिहान..

बुधवार, 22 जून 2011

सियासी दांवपेंचों में उलझा लोकपाल



जन लोकपाल के मसौदे के लिए गठित साझा समिति की नौवीं और आखिरी बैठक का सुखांत (सिर्फ सौहार्द पूर्ण बैठक) कैसा भी रहा हो, लेकिन वह भ्रष्टाचार के सवाल पर सिविल सोसायटी को संतुष्ट करने के बजाय सतर्क ज्यादा करता है। अंतत: आम सहमति बनाने में नाकाम रही इस कवायद का सीधा सा अर्थ तो यही है कि यूपीए सरकार व्यापक जनहित से जुड़े इस बेहद नाजुक मामले में सियासी दांवबाजी से बाज नहीं आ रही है। दरअसल, सहमति के रास्ते पर नहीं चलना यूपीए सरकार की राजनैतिक विवशता है। सत्ता,नौकरशाह और इन दोनों के बीच दलालों का त्रिगुटीय गठजोड़ सरकार को जनता के हाथों मजबूत जनलोकपाल देने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होने दे रहा है। मगर बावजूद इसके अगर ऐसे में सरकार की अकड़ एक बार फिर से जरा सी लचर हुई है तो इसका मतलब यह नहीं कि लोकपाल बिल मानसून सत्र में संसद के पटल पर आ ही जाएगा। भारी जन समर्थन और जोरदार दबाव के चलते सरकार यह तो अच्छी तरह से समझ चुकी है कि अब लोकपाल को और ज्यादा लटका पाना मुमकिन नहीं है। जाहिर है,सरकार की चिंता सिर्फ इस बात को लेकर है कि कैसे इस मसले को तकनीकी तौर पर सियासी दावपेंचों में फंसा दिया जाए और यही वजह है कि सरकार आम सहमति के बजाय अलगाव के रास्ते पर है। वह चाहे मसौदे में मौजूद असहमति के मुद्दों को कैबिनेट पर ले जाने का मामला हो या फिर सर्वदलीय सहमति बनाने का मसला । सरकार अपने गुनाहों में सियासी गुनहगारों का संख्या बल बढ़ाकर सिविल सोसायटी को ठेंगा दिखाने की कोशिश में है। देश को यह समझना होगा कि ताकतवर लोकपाल बिल से सत्ता सदैव भयभीत रही है। इस जनतांत्रिक देश में लोकपाल की अवधारणा आधी सदी पुरानी है। वर्ष 1989 से 2001के बीच लोकपाल बिल संसद में चार बार आ चुका है। हैरानी की बात तो यह है कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को लाने से रोकने के लिए आज जिस ज्वाइंट कमेटी के प्रेसीडेंट और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी इतनी हाय तौबा मचा रहे हैं , इन्हीं प्रणव ने इसी लोकपाल के लिए दस साल पहले गठित संसद की स्टैंडिंग कमेटी के प्रेसीडेंट होने के नाते प्रधानमंत्री को लोकपाल की परिधि में लाने की सहमति जताई थी। आशय यह कि लोकपाल के मामले में सरकार बेहद दबाव में है। अभी तक प्रधानमंत्री को हर कीमत पर जनलोकपाल से दूर रखने की जिद पर अडिग रही सरकार ने अप्रकट रूप से सिविल सोसायटी के सामने घुटने टेके हैं लेकिन इस सरकारी तरलता से सहमति का रास्ता साफतौर पर नहीं खुलता है। बाधाएं पग-पग पर हैं। चाहे वह उच्च न्यायालयों, संसद के भीतर सांसदों का आचरण,सीबीआई और सीवीसी को भी जनलोकपाल के दायरे में लाने की मांग हो या फिर लोकपाल की नियुक्ति, पात्रता और उसे पदच्युत करने की प्रक्रिया के यक्ष प्रश्न हों। कहना न होगा कि सरकार सत्ता के अहंकार में भले ही फूल रही हो लेकिन वह इस तथ्य को समझ चुकी है कि जनलोकपाल से जुड़ी जनभावनाओं पर उसकी एक भी भूल अब बहुत भारी पड़ने वाली है। इस मामले में सर्वदलीय भूमिका से कुछ खास की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। जहां तक दलीय सवाल है तो सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

सोमवार, 20 जून 2011

सोनिया : एक सच और तीन झूठ





सोनिया माइनो गांधी. भारत की सबसे ताकतवर महिला शासक जिसके प्रत्यक्ष हाथ में सत्ता भले ही न हो लेकिन जो एक सत्ताधारी पार्टी की सर्वेसर्वा हैं. जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी लंबे अरसे से सोनिया गांधी के बारे में ऐसे आश्चर्यजनक बयान देते रहे हैं जिसपर सहसा यकीन करना मुश्किल होगा. लेकिन अब जैसे जैसे समय बीत रहा है सोनिया गांधी का सच और सुब्रमण्यम स्वामी के बयान की दूरियां घटती दिखाई दे रही हैं. सोनिया गांधी के बारे में खुद सुब्रमण्यम स्वामी का यह लेख-

तीन झूठ:

कांग्रेस पार्टी और खुद सोनिया गांधी अपनी पृष्ठभूमि के बारे में जो बताते हैं, वो तीन झूठों पर टिका हुआ है। पहला ये है कि उनका असली नाम अंतोनिया है न की सोनिया। ये बात इटली के राजदूत ने नई दिल्ली में 27 अप्रैल 1973 को लिखे अपने एक पत्न में जाहिर की थी। ये पत्न उन्होंने गृह मंत्नालय को लिखा था, जिसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। सोनिया का असली नाम अंतोनिया ही है, जो उनके जन्म प्रमाण पत्न के अनुसार एकदम सही है।

सोनिया से जुड़ा दूसरा झूठ है उनके पिता का नाम। अपने पिता का नाम स्टेफनो मैनो बताया था। वो दूसरे विश्व युद्ध के समय रूस में युद्ध बंदी थे। स्टेफनो नाजी आर्मी के वालिंटियर सदस्य थे। बहुत ढेर सारे इतालवी फासिस्टों ने ऐसा ही किया था। सोनिया दरअसल इतालवी नहीं बल्कि रूसी नाम है। सोनिया के पिता रूसी जेलों में दो साल बिताने के बाद रूस समर्थक हो गये थे। अमेरिकी सेनाओं ने इटली में सभी फासिस्टों की संपित्त को तहस-नहस कर दिया था। सोनिया ओरबासानो में पैदा नहीं हुईं, जैसा की उनके बायोडाटा में दावा किया गया है। इस बायोडाटा को उन्होंने संसद में सासंद बनने के समय पर पेश किया था, सही बात ये है कि उनका जन्म लुसियाना में हुआ। शायद वह इस जगह को इसलिए छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि उनके पिता के नाजी और मुसोलिनी संपर्कों का पता नहीं चल पाये और साथ ही ये भी उनके परिवार के संपर्क इटली के भूमिगत हो चुके नाजी फासिस्टों से युद्ध समाप्त होने तक बने रहे। लुसियाना नाजी फासिस्ट नेटवर्क का मुख्यालय था, ये इटली-स्विस सीमा पर था। इस मायनेहीन झूठ का और कोई मतलब नहीं हो सकता।

तीसरा सोनिया गांधी ने हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई कभी की ही नहीं , लेकिन रायबरेली से चुनाव लड़ने के दौरान उन्होंने अपने चुनाव नामांकन पत्न में उन्होंने ये झूठा हलफनामा दायर किया कि वो अंग्रेजी में कैम्ब्रिज यूनिविर्सटी से डिप्लोमाधारी हैं। ये हलफनामा उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान रायबरेली में रिटिर्नंग ऑफिसर के सम्मुख पेश किया था। इससे पहले 1989 में लोकसभा में अपने बायोग्राफिकल में भी उन्होंने अपने हस्ताक्षर के साथ यही बात लोकसभा के सचिवालय के सम्मुख भी पेश की थी , जो की गलत दावा था। बाद में लोकसभा स्पीकर को लिखे पत्न में उन्होंने इसे मानते हुए इसे टाइपिंग की गलती बताया। सही बात ये है कि श्रीमती सोनिया गांधी ने कभी किसी कालेज में पढाई की ही नहीं। वह पढ़ाई के लिए गिवानो के कैथोलिक नन्स द्वारा संचालित स्कूल मारिया आसीलेट्रिस गईं , जो उनके कस्बे ओरबासानों से 15 किलोमीटर दूर था। उन दिनों गरीबी के चलते इटली की लड़कियां इन मिशनरीज में जाती थीं और फिर किशोरवय में ब्रिटेन ताकि वहां वो कोई छोटी-मोटी नौकरी कर सकें। मैनो उन दिनों गरीब थे। सोनिया के पिता और माता की हैसियत बेहद मामूली थी और अब वो दो बिलियन पाउंड की अथाह संपित्त के मालिक हैं। इस तरह सोनिया ने लोकसभा और हलफनामे के जरिए गलत जानकारी देकर आपराधिक काम किया है , जिसके तहत न केवल उन पर अपराध का मुकदमा चलाया जा सकता है बल्कि वो सांसद की सदस्यता से भी वंचित की जा सकती हैं। ये सुप्रीम कोर्ट की उस फैसले की भावना का भी उल्लंघन है कि सभी उम्मीदवारों को हलफनामे के जरिए अपनी सही पढ़ाई-लिखाई से संबंधित योग्यता को पेश करना जरूरी है। इस तरह ये सोनिया गांधी के तीन झूठ हैं, जो उन्होंने छिपाने की कोशिश की। कहीं ऐसा तो नहीं कि कतिपय कारणों से भारतीयों को बेवकूफ बनाने के लिए उन्होंने ये सब किया। इन सबके पीछे उनके उद्देश्य कुछ अलग थे। अब हमें उनके बारे में और कुछ भी जानने की जरूरत है।

सोनिया का भारत में पदार्पण:
सोनिया गांधी ने इतनी इंग्लिश सीख ली थी कि वो कैम्ब्रिज टाउन के यूनिविर्सटी रेस्टोरेंट में वैट्रेस बन गईं। वो राजीव गांधी से पहली बार तब मिलीं जब वो 1965 में रेस्टोरेंट में आये। राजीव यूनिविर्सटी के स्टूडेंट थे , लेकिन वो लंबे समय तक अपने पढ़ाई के साथ तालमेल नहीं बिठा पाये इसलिए उन्हें 1966 में लंदन भेज दिया गया , जहां उनका दाखिला इंपीरियल कालेज ऑफ इंजीनियरिंग में हुआ। सोनिया भी लंदन चली आईं। मेरी सूचना के अनुसार उन्हें लाहौर के एक व्यवसायी सलमान तासिर के आउटफिट में नौकरी मिल गई। तासीर की एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट कंपनी का मुख्यालय दुबई में था लेकिन वो अपना ज्यादा समय लंदन में बिताते थे। आईएसआई से जुडे होने के लिए उनकी ये प्रोफाइल जरूरी थी। स्वाभावित तौर पर सोनिया इस नौकरी से इतना पैसा कमा लेती थीं कि राजीव को लोन फंड कर सकें। राजीव मां इंदिरा गांधी द्वारा भारत से भेजे गये पैसों से कहीं ज्यादा पैसे खर्च देते थे। इंदिरा ने राजीव की इस आदत पर मेरे सामने भी 1965 में तब मेरे सामने भी गुस्सा जाहिर किया था जब मैं हार्वर्ड में इकोनामिक्स का प्रोफेसर था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने मुङो ब्रेंनेडिस यूनिविर्सटी के गेस्ट हाउस में , जहां वो ठहरी थीं , व्यक्तिगत तौर पर चाय के लिए आमंत्रित किया। पीएन लेखी द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किये गये राजीव के छोटे भाई संजय को लिखे गये पत्न में साफ तौर पर संकेत दिया गया है कि वह वित्तीय तौर पर सोनिया के काफी कर्जदार हो चुके थे और उन्होंने संजय से अनुरोध किया था , जो उन दिनों खुद ब्रिटेन में थे और खासा पैसा उड़ा रहे थे और कर्ज में डूबे हुए थे। उन दिनों सोनिया के मित्नों में केवल राजीव गांधी ही नहीं थे बल्कि माधवराव सिंधिया भी थे। सिंधिया और एक स्टीगलर नाम का जर्मन युवक भी सोनिया के अच्छे मित्नों में थे। माधवराव की सोनिया से दोस्ती राजीव की सोनिया से शादी के बाद भी जारी रही। 1972 में माधवराव आईआईटी दिल्ली के मुख्य गेट के पास एक एक्सीडेंट के शिकार हुए और उसमें उन्हें बुरी तरह चोटें आईं , ये रात दो बजे की बात है , उसी समय आईआईटी का एक छात्न बाहर था। उसने उन्हें कार से निकाल कर ऑटोरिक्शा में बिठाया और साथ में घायल सोनिया को श्रीमती इंदिरा गांधी के आवास पर भेजा जबकि माधवराव सिंधिया का पैर टूट चुका था और उन्हें इलाज की दरकार थी। दिल्ली पुलिस ने उन्हें हॉस्पिटल तक पहुंचाया। दिल्ली पुलिस वहां तब पहुंची जब सोनिया वहां से जा चुकी थीं। बाद के सालों में माधवराव सिंधिया व्यक्तिगत तौर पर सोनिया के बड़े आलोचक बन गये थे और उन्होंने अपने कुछ नजदीकी मित्नों से अपनी आशंकाओं के बारे में भी बताया था। कितना दुर्भाग्य है कि वो 2001 में एक विमान हादसे में मारे गये। मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षति भी उसी विमान से जाने वाले थे लेकिन उन्हें आखिरी क्षणों में फ्लाइट से न जाने को कहा गया। वो हालात भी विवादों से भरे हैं जब राजीव ने ओरबासानो के चर्च में सोनिया से शादी की थी , लेकिन ये प्राइवेट मसला है , इसका जिक्र करना ठीक नहीं होगा। इंदिरा गांधी शुरू में इस विवाह के सख्त खिलाफ थीं, उसके कुछ कारण भी थे जो उन्हें बताये जा चुके थे। वो इस शादी को हिन्दू रीतिरिवाजों से दिल्ली में पंजीकृत कराने की सहमति तब दी जब सोवियत समर्थक टी एन कौल ने इसके लिए उन्हें कंविंस किया , उन्होंने इंदिरा जी से कहा था कि ये शादी भारत-सोवियत दोस्ती के वृहद इंटरेस्ट में बेहतर कदम साबित हो सकती है। कौल ने भी तभी ऐसा किया जब सोवियत संघ ने उनसे ऐसा करने को कहा।

सोनिया के केजीबी कनेक्शन:
बताया जाता है कि सोनिया के पिता के सोवियत समर्थक होने के बाद से सोवियत संघ का संरक्षण सोनिया और उनके परिवार को मिलता रहा। जब एक प्रधानमंत्नी का पुत्न लंदन में एक लड़की के साथ डेटिंग कर रहा था , केजीबी जो भारत और सोवियत रिश्तों की खासा परवाह करती थी , ने अपनी नजर इस पर लगा दी , ये स्वाभाविक भी था , तब उन्हें पता लगा कि ये तो स्टेफनो की बेटी है , जो उनका इटली का पुराना विश्वस्त सूत्न है। इस तरह केजीबी ने इस शादी को हरी झंडी दे दी। इससे पता चलता है कि केजीबी श्रीमती इंदिरा गांधी के घर में कितने अंदर तक घुसा हुआ था। राजीव और सोनिया के रिश्ते सोवियत संघ के हित में भी थे , इसलिए उन्होंने इस पर काम भी किया। राजीव की शादी के बाद मैनो परिवार को सोवियत रिश्तों से खासा फायदा भी हुआ। भारत के साथ सभी तरह सोवियत सौदों , जिसमें रक्षा सौदे भी शामिल थे , से उन्हें घूस के रूप में मोटी रकम मिलती रही। एक प्रतिष्ठित स्विस मैगजीन स्विट्जर इलेस्ट्रेटेड के अनुसार राजीव गांधी के स्विस बैंक अकाउंट में दो बिलियन पाउंड जमा थे , जो बाद में सोनिया के नाम हो गये। डॉ. येवगेनी अलबैट (पीएचडी , हार्वर्ड) जाने माने रूसी स्कॉलर और जर्निलस्ट हैं और वो अगस्त 1981 में राष्ट्रपति येल्तिसिन द्वारा बनाये गये केजीबी कमीशन के सद्स्यों में भी थीं। उन्होंने तमाम केजीबी की गोपनीय फाइलें देखीं , जिसमें सौदों से संबंधित फाइलें भी थीं। उन्होंने अपनी किताब द स्टेट विदइन स्टेट – केजीबी इन द सोवियत यूनियन में उन्होंने इस तरह की गोपनीय बातों के रिफरेंस नंबर तक दे दिये हैं , जिसे किसी भी भारतीय सरकार द्वारा क्र ेमलिन से औपचारिक अनुरोध पर देखा जा सकता है। रूसी सरकार की 1982 में अल्बैटस से मीडिया के सामने ये सब जाहिर करने पर भित भी हुई। उनकी बातों की सत्यता की पुष्टि रूस के आधिकारिक प्रवक्ता ने भी की। (ये हिन्दू 1982 में प्रकाशित हुई थी)। प्रवक्ता ने इन वित्तीय भुगतानों की पैरवी करते हुए कहा था कि सोवियत हितों की दृष्टि से ये जरूरी थे। इन भुगतानों में कुछ हिस्सा मैनो परिवार के पास गया , जिससे उन्होंने कांग्रेस पार्टी की चुनावों में भी फंडिंग की। 1981 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो चीजें श्रीमती सोनिया गांधी के लिए बदल गईं। उनका संरक्षक देश 16 देशों में बंट गया। अब रूस वित्तीय रूप से खोखला हो चुका था और अव्यवस्थाएं अलग थीं। इसलिए श्रीमती सोनिया गांधी ने अपनी निष्ठाएं बदल लीं और किसी और कम्युनिस्ट देश के करीब हो गईं , जो रूस का विरोधी है। रूस के मौजूदा प्रधानमंत्नी और इससे पहले वहां के राष्ट्रपति रहे पुतिन एक जमाने में केजीबी के बड़े अधिकारी थे। जब डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्नी पद की शपथ ले रहे थे तो रूस ने अपने करियर डिप्लोमेट राजदूत को नई दिल्ली से वापस बुला लिया और तुरंत उसके पद पर नये राजदूत को तैनात किया , जो नई दिल्ली में 1960 के दशक में केजीबी का स्टेशन चीफ हुआ करता था। इस मामले में डॉ. अल्बैट्स का रहस्योदघाटन समझ में आता है कि नया राजदूत सोनिया के केजीबी के संपर्कों के बारे में बेहतर तरीके से जानता था। वो सोनिया से स्थानीय संपर्क का काम कर सकता था। नई सरकार सोनिया के इशारों पर ही चलती है और उनके जरिए आने वाली रूसी मांगों को अनदेखा भी नहीं कर सकती। क्या इससे ये नहीं लगता कि ये भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक भी हो सकता है। वर्ष 2001 में मैंने दिल्ली में एक रिट याचिका दायर की , जिसमें केजीबी डाक्यूमेंट्स की फोटोकापियां भी थीं और इसमें मैंने सीबीआई जांच की मांग की थी लेकिन वाजपेई सरकार ने इसे खारिज कर दिया। इससे पहले सीबीआई महकमे को देखने वाली गृह राज्य मंत्नी वसुंधरा राजे सिंधिया ने मेरे 3 मार्च 2001 के पत्न पर सीबीआई जांच का आदेश भी दे दिया था लेकिन इस मामले पर सोनिया और उनकी पार्टी ने संसद की कार्रवाई रोक दी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्नी वाजपेई ने वसुधरा की जांच के आदेश को खारिज कर दिया। मई 2002 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक दिशा निर्देश जारी किया कि वो रूस से मालूम करे कि सत्यता क्या है , रु सियों ने ऐसी किसी पूछताछ का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सवाल ये है कि किसने सीबीआई को इस मामले पर एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया था। वाजपेई सरकार ने , लेकिन क्यों ? इसकी भी एक कहानी है। अब सोनिया ड्राइविंग सीट पर हैं और सीबीआई की स्वायत्ता लगभग खत्म सी हो चुकी है

सोनिया और भारत के कानूनों का हनन:
सोनिया के राजीव से शादी के बाद वह और उनकी इतालवी परिवार को उनके दोस्त और स्नैम प्रोगैती के नई दिल्ली स्थित प्रतिनिधि आटोवियो क्वात्नोची से मदद मिली। देखते ही देखते मैनो परिवार इटली में गरीबी से उठकर बिलियोनायर हो गया। ऐसा कोई भी क्षेत्न नहीं था जिसे छोड़ा गया। 19 नवंबर 1964 को नये सांसद के तौर पर मैंने प्रधानमंत्नी श्रीमति इंदिरा गांधी से संसद में पूछा क्या उनकी बहू पिब्लक सेक्टर की इंश्योरेंस के लिए इंश्योरेंस एजेंट का काम करती है (ओरिएंट फायर एंड इंश्योरेंस) और वो भी प्रधानमंत्नी हाउस के पते पर और उसके जरिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पीएमओ के अधिकारियों का इंश्योरेंस करती हैं। जबकि वो अभी इतालवी नागरिक ही हैं (ये फेरा के उल्लंघन का मामला भी था) । संसद में हंगामा हो गया। कुछ दिनों बाद एक लिखित जवाब में उन्होंने इसे स्वीकार किया और कहा हां ऐसा हुआ था और ऐसा गलती से हुआ था लेकिन अब सोनिया गांधी ने इंश्योरेंस कंपनी से इस्तीफा दे दिया है। जनवरी 1970 में श्रीमती इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में लौटीं और सोनिया ने पहला काम किया और ये था खुद को वोटर लिस्ट में शामिल कराने का। ये नियमों और कानूनों का सरासर उल्लंघन था। इस आधार पर उनका वीसा भी रद्द किया जा सकता था तब तक वो इतालवी नागरिक के रूप में कागजों में दर्ज थीं। जब मीडिया ने इस पर हल्ला मचाया तो मुख्य निर्वाचक अधिकारी ने उनका नाम 1972 में डिलीट कर दिया। लेकिन जनवरी 1973 में उन्होंने फिर से खुद को एक वोटर के रूप में दर्ज कराया जबकि वो अभी भी विदेशी ही थीं और उन्होंने पहली बार भारतीय नागरिकता के लिए अप्रैल 1973 में आवेदन किया था।

सोनिया गांधी आधुनिक रॉबर्ट क्लाइव:

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सोनिया गांधी भारतीय कानूनों का सम्मान नहीं करतीं। अगर कभी उन्हें किसी मामले में गलत पाया गया या कठघरे में खडा किया गया तो वो हमेशा इटली भाग सकती हैं। पेरू में राष्ट्रपति फूजीमोरी जो खुद को पेरू में पैदा हुआ बताते थे , जब भ्रष्टाचार के मामले में फंसे और उन पर अभियोग चलने लगा तो वो जापान भाग गये और जापानी नागरिकता के लिए दावा पेश कर दिया। 1977 में जब जनता पार्टी ने चुनावों में कांग्रेस को हराया और नई सरकार बनाई तो सोनिया अपने दोनों बच्चों के साथ नई दिल्ली के इतालवी दूतावास में भाग गईं और वहीं छिपी रहीं यहां तक की इस मौके पर उन्होंने इंदिरा गांधी को भी उस समय छोड़ दिया। ये बात अब कोई नई नहीं है बल्कि कई बार प्रकाशित भी हो चुकी है। राजीव गांधी उन दिनों सरकारी कर्मचारी (इंडियन एयरलाइंस में पायलट) थे। लेकिन वो भी सोनिया के साथ इस विदेशी दूतावास में छिपने के लिए चले गये। ये था सोनिया का उन पर प्रभाव। राजीव 197? में सोनिया के प्रभाव से बाहर निकल चुके थे लेकिन जब तक वो स्थितियों को समझ पाते तब तक उनकी हत्या हो चुकी थी। जो लोग राजीव के करीबी हैं , वो जानते हैं कि वो 1981 के चुनावों के बाद सोनिया को लेकर कोई सही कदम उठाने वाले थे। उन्होंने सभी प्रकार के वित्तीय घोटालों और 197? के चुनावों में हार के लिए सोनिया को जिम्मेदार माना था। मैं तो ये भी मानता हूं कि सोनिया के करीबी लोग राजीव से घृणा करते थे। इस बात का जवाब है कि राजीव के हत्यारों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के मृत्युदंड के फैसले पर मर्सी पीटिशन की अपील राष्ट्रपति से की गई। ऐसा उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारे सतवंत सिंह के लिए क्यों नहीं किया या धनंजय चट्टोपाध्याय के लिए नहीं किया ? वो लोग जो भारत से प्यार नहीं करते वो ही भारत के खजाने को बाहर ले जाने का काम करते हैं, जैसा मुहम्मद गौरी, नादिर शाह और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने किया था। ये कोई सीक्र ेट नहीं रह गया है। लेकिन सोनिया गांधी तो उससे भी आगे निकलती हुई लग रही हैं। वो भारतीय खजाने को जबरदस्त तरीके से लूटती हुई लग रही हैं।

जब इंदिरा गांधी और राजीव गांधी प्रधानमंत्नी थे तो एक भी दिन ऐसा नहीं हुआ जब क्र ेट के क्र ेट बहुमूल्य सामानों को बिना कस्टम जांच के नई दिल्ली या चेन्नई इंटरनेशनल एयरपोर्ट से रोम न भेजा गया हो। सामान ले जाने के लिए एयर इंडिया और अलीटालिया को चुना जाता था। इसमें एंटिक के सामान , बहुमूल्य मूर्तियां , शॉल्स, आभूषण , पेंटिंग्स , सिक्के और भी न जाने कितनी ही बहुमूल्य सामान होते थे। ये सामान इटली में सोनिया की बहन अनुष्का उर्फ अलेक्सांद्रो मैनो विंसी की रिवोल्टा की दुकान एटनिका और ओरबासानो की दुकान गणपति पर डिसप्ले किया जाता था। लेकिन यहां उनकी बिक्र ी ज्यादा नहीं थी इसलिए इसे लंदन भेजा जाने लगा और सोठेबी और क्रि स्टी के जरिए बेचा जाने लगा। इस कमाई का एक हिस्सा राहुल गांधी के वेस्टमिनिंस्टर बैंक और हांगकांग एंड शंघाई बैंक की लंदन स्थित शाखाओं में भी जमा किया गया। लेकिन ज्यादातर पैसा गांधी परिवार के लिए काइमन आइलैंड के बैंक आफ अमेरिका में है। राहुल जब हार्वर्ड में थे तो उनकी एक साल की फीस बैंक आफ अमेरिका काइमन आइलैंड से ही दी जाती थी। मैं वाजपेई सरकार को इस बारे में बार-बार बताता रहा लेकिन उन्हें विश्वास में नहीं ले सका , तब मैने दिल्ली हाईकोर्ट में एक पीआईएल दायर की। कोर्ट ने इस मामले में सीबीआई को इंटरपोल और इटली सरकार की मदद लेकर जांच करने को कहा। इंटरपोल ने इन दोनों दुकानों की एक पूरी रिपोर्ट तैयार करके सीबीआई को भी दी, जिसे कोर्ट ने सीबीआई से मुङो दिखाने को भी कहा , लेकिन सीबीआई ने ऐसा कभी नहीं किया। सीबीआई का झूठ तब भी अदालत में सबके सामने आ चुका था जब उसने अलेक्सांद्रो मैनो का नाम एक आदमी का बताया और विया बेलिनी 14 , ओरबासानो को एक गांव का नाम बताया था जबकि मैनो के निवास की स्ट्रीट का पता था। अलबत्ता सीबीआई के वकील द्वारा इस गलती के लिए अदालत के सामने खेद जाहिर करना था लेकिन उसे नई सरकार द्वारा एिडशिनल सॉलिसीटर जनरल के पद पर प्रोमोट कर दिया गया।

एकदम ताजा मामला 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से जुड़ा हुआ है। पौने दो लाख करोड के 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में 60 हजार करोड रु पए घूस बांटी गई जिसमें चार लोग हिस्सेदार थे। इस घूस में सोनिया गांधी की दो बहनों का हिस्सा 30-30 प्रतिशत है। प्रधानमंत्नी सब कुछ जानते हुए भी मूक दर्शक बने रहे। इस घोटाले में घूस के तौर पर बांटे गए 60 हजार करोड़ रु पये का दस प्रतिशत हिस्सा पूर्व संचार मंत्नी ए राजा को गया। 30 फीसदी हिस्सेदारी तमिलनाडु के मुख्यमंत्नी एम करु णानिधि को और 30-30 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया गांधी की दो बहनों नाडिया और अनुष्का को गया है।

(सुब्रमण्यम स्वामी जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं. उनके लेखों और वक्तव्यों से संग्रह करके इसे लेख का स्वरूप दिया है डॉ संतोष राय न: विस्फोट डॉट काम से साभार)

भगवा भूत और शह-मात की सियासत


हिंदू आतंकवाद से जुड़ी सात बहुचर्चित वारदातों की जांच का जिम्मा राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने के केंद्रीय गृह मंत्रलय के एलान के साथ ही देश में सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं। शह-मात के इस सियासी खेल में कानून की भूमिका पर फिलहाल केंद्रीय विधि मंत्रलय विचार कर रहा है। असल में यूपीए सरकार अब एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश में है। एक तो यह कि वह इसी बहाने मध्यप्रदेश और गुजरात की भाजपा सरकारों को कटघरे में लाने की कोशिश कर रही है और दूसरा यह कि इसी आड़ में वह प्रस्तावित सांप्रदायिक एवं निर्देशित हिंसा रोकथाम विधेयक के लिए जमीन बना रही है। सवाल यह है कि आज अगर सहिष्णु भारतीय समाज को भगवा आतंक का भूत भयभीत कर रहा है तो इसके लिए आखिर दोषी कौन है? वस्तुत: हर क्रिया की प्रतिक्रिया स्वभाविक है। चाहे वह मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ हिंदू चरमपंथ हो या फिर हिंदू अतिवाद के विरूद्ध मुस्लिम कठमुल्लापन। आज अगर ये हालात बने हैं तो इसके पीछे वोट के लिए तुष्टीकरण एक बड़ी वजह रही है। यह सच है कि देश में हाल ही में सामने आई कुछ आतंकी गतिविधियों में कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों का हाथ रहा है , लेकिन यह भी सच है कि यह सब सहसा नहीं हुआ है। इसका क्रमिक विकास रजनैतिक मंच पर सरेआम हुआ है मगर बावजूद इसके धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन के बाद भी आज अगर इस धर्मनिरपेक्ष देश में मुस्लिम, खालिस इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान के मुकाबले ज्यादा सम्मानित,समृद्ध और सुरक्षित हैं तो यह सब हिंदू जीवन दर्शन में निहित सहिष्णुता ,सह अस्तित्व और सर्वधर्म समभाव का ही परिणाम है। कहना न होगा कि राष्ट्रीय एकीकरण की इस विशिष्टतता में आजादी के आंदोलन से लेकर आजाद भारत के पुनर्निमाण तक भारतीय मुस्लिमों की राष्ट्रीय भावना का महत्वपूर्ण योगदान रहा है,लेकिन विडबंना देखिए कि स्वार्थ से वशीभूत सियासतदारों ने हमेशा सांप्रदायिक सदभाव को धार्मिक नजरिए से देखने की ऐतिहासिक भूलें की हैं। वर्ना कोई भी समाज समग्र रूप से आतंक का पोषण नहीं कर सकता। यह उसका स्वभाव नहीं। सहअस्तिव समाज का मनोवैज्ञानिक स्वभाव और सामाजिकता उसकी व्यावहारिक विवशता होती है। यदि समाज के किसी भी वर्ग में आतंक का पोषण होता है और वह उसका फौरन प्रतिकार नहीं करता है तो उसे इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है आज अगर दुनिया के तमाम देश मुस्लिम आतंकवाद से दहल रहे हैं तो इसके पीछे समाज की खामोशी एक बड़ा कारण है। इसी खामोशी के मौन समर्थन से आतंकवाद को शक्ति मिली है। अब वक्त आ गया है,जब भारतीय समाज अपनी जिम्मेदारी समङो। ऐतिहासिक भूलों से सबक ले और सियासतदारों को ऐसे अवसर न पैदा करने दे। वोटों के भूखे सियासतदार राजनैतिक रोटियों सेंकने के लिए अक्सर ऐसे अवसर पैदा करने की कुटिल कोशिशें करते हैं। सांप्रदायिकता का सवाल हो या फिर अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का नाजुक मसला ये ऐसे ही अवसर हैं जो कभी हिंदू तो कभी मुस्लिम आतंकवाद की राह आसान करते हैं। बेशक, वक्त रहते ऐसी साजिशों का सामाजिक शमन जरूरी है और पोषण आत्मघाती।

शनिवार, 18 जून 2011

आर्थिक संकट और अर्थशास्त्रीय सरकार






देश में महंगाई खतरनाक स्तर तक बेकाबू हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक की सबसे बड़ी फिर्क यही है कि महंगाई की मार अब अकेले खाद्य वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रही अपितु इसके जहर का असर अब विनिर्मित वस्तुओं तक पहुंच चुका है। आर्थिक लिहाज से यह एक अभूतपूर्व संकट है। इसके विपरीत यूपीए की अर्थशास्त्रीय सरकार की चिंता कुछ और ही है। दरअसल,भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों से घिरी केंद्रीय सत्ता को भी अर्थव्यवस्था पर अपनी राजनीतिक फिसलन का असर दिखने लगा है। विशेषज्ञों की मानें तो भारतीय अर्थव्यवस्था का एक भी कोना ऐसा नहीं है ,जो राहत देने की उम्मीद बंधाता हो। मसलन-तमाम उपायों के बाद भी महंगाई दर दहाई अंकों पर बनी हुई है। अभी पेट्रोल- डीजल और रसोई गैस के दामों को नियंत्रण मुक्त करने की कवायद प्रस्तावित है। अगर सरकार साहस जुटा पाई तो परिवहन लागत बढ़ने से एक और आफत अंतत: आम आदमी पर ही टूटेगी। चालू माली साल में जीडीपी का ग्रोथ रेट 8 फीसदी से भी नीचे जा सकता है। सकल मुद्रा स्फीति की दर 9 प्रतिशत की रेड लाइन को पार कर चुकी है। औद्योगिक उत्पादन की विकास दर गिरकर महज 6.3 प्रतिशत रह गई है । सवा साल में रिजर्व बैंक की हालिया दसवीं कोशिश से रेपो दर 7.5 और रिवर्स रेपो दर 6.5 फीसदी के स्तर पर भले ही पहुंच गई हो, लेकिन इतना तय है कि अगले चार- छह महीनों में ब्याज दरों में कम से कम दो से तीन बार और चौथाई-चौथाई फीसदी की वृद्धि की आशंका है। बावजूद इसके महंगाई दर 6 फीसदी से नीचे नहीं आने वाली है। एक साल के दौरान होम लोन की दरों में 3 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। वैसे भी केंद्रीय बैंक ने मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा के दौरान इस आशय के साफ संकेत दिए हैं कि मंहगाई को काबू में लाने के लिए आगे भी ऐसे ही सख्त कदम उठाए जा सकते हैं। मंहगाई के सवाल पर भारतीय रिजर्व का एक ही रटा-रटाया जवाब है। बाजार में नकदी का प्रवाह जरूरत से ज्यादा है ,लिहाजा आवश्यक वस्तुओं की ज्यादा खपत हो रही है। यही महंगाई की मूल वजह है। बाजार में मौजूद नकदी को सोखे बिना संकट से निजात मुमकिन नहीं है। ऐसे में रेपो और रिवर्स रैपो जैसी नैतिक दरों में वृद्धि ही महज एक रास्ता है। असल में सुरसा की तरह मुंह फैला रही मंहगाई पर मुस्के लगाने के मामले में आरबीआई भी अंधेरे में तीर मार रही है। जमीनी हकीकत तो यह है कि हालात अब इस हद तक बेकाबू हैं कि किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा है। रिजर्व बैंक के तमाम पूर्वानुमान ध्वस्त हो चुके हैं। अर्थशास्त्रीय सरकार से लेकर उसके सलाहकार और रणनीतिकार चकराए हुए हैं। बकौल आरबीआई अगर महंगाई के लिए बाजार का मौद्रिक उफान दोषी है ,तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? ऋण लेकर घी पीने का चार्वाक दर्शन देने वाली मनमोहन की अर्थशास्त्रीय सरकार आज वैश्विक मंच पर भले ही मजबूत अर्थव्यवस्था का दम दिखा रही हो ,लेकिन घरेलू मामलों के आर्थिक मोर्चे पर वह मुंह दिखाने के लायक नहीं बची है। आज अगर आर्थिक उदारीकरण के दूरगामी दुष्परिणामों की वजह से बाजार में नकदी के बहाव के चलते महंगाई मांग और आपूर्ति के बीच गहरी खाईं बनकर बैठी है,तो गुनहगार कौन है?

शुक्रवार, 17 जून 2011

नपुंसक पुलिस



तेज धारदार हथियार के साथ एक युवक बाकयदा राजधानी भोपाल के बैरसिया थाने में आता है और लॉकप में बतौर हिरासत बंद एक नाबालिग के अपहरण और उससे ज्यादती के आरोपी पर जानलेवा हमला करके आराम से चला जाता है। इस मामले में पुलिस न केवल तमाशबीन बनी रहती है,अपितु वह बराबर की भागीदार भी होती है। इसी बीच मरणासन्न बंदी पर पुलिस आत्महत्या की कोशिश का मुकदमा ठोंक देती है। मध्यप्रदेश के न्यायिक सेवा के इतिहास में संभवत:अपने किस्म का यह पहला मामला है,जब अदालत ने ऐसे किसी प्रकरण को स्वयं संज्ञान में लेकर किसी विचाराधीन कैदी की हत्या की कोशिश के इल्जाम में पूरे थाने के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 के तहत मुकदमा कायम किए जाने के आदेश दिए हैं..यूपी के लखीमपुर खीरी जिले के निघासन थाने में 14 साल की एक नाबालिग के साथ मनमानी के बाद उसकी गला दबा कर हत्या कर दी जाती है और हत्या को आत्महत्या की शक्ल देने के लिए मासूम की लाश थाना परिसर में ही पेड़ पर फांसी में लटका दी जाती है..मुंबई से लगे ग्रामीण इलाके की एक खेतिहर मजदूर महिला के सामने ही 6 वहशी दरिंदे पहले उसके पति की हत्या कर देते हैं और फिर गैंग रेप करते हैं। फरियाद लेकर थाने पहुंची पीड़िता के साथ पुलिस भी बदसलूकी करती है और उसके पति की हत्या को आत्महत्या में बदल कर मुकदमा कायम कर लेती है..कल्याण की एक कोर्ट में पेशी में आए दो चोर अदालत को बताते हैं कि लॉकप में पुलिस ने किस तरह से उन दोनों को परस्पर समलैंगिक संबंध बनाने के लिए मजबूर कर दिया..सवाल यह है कि राष्ट्र भक्ति और जनसेवा का स्वांग रचने वाली पुलिस के इस अराजक राज में आखिर कानून की हैसियत क्या है? अगर यही कानून का राज है तो फिर जंगलराज की परिभाषा क्या है? ब्रिटिशकालीन संस्कृति और संस्कारों में पली-बढ़ी हवशी और हिंसक पुलिस अगर आजादी के 6 दशक बाद रत्ती भर भी संवेदनशील और मानवीय नहीं हो पाई है, तो इसके प्रति आखिर जवाबदेही किसकी है? असल में इस देश के अंदर साजिशन पुलिस सुधारों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया। वस्तुत: सत्ता की शक्ति पुलिस, सियासतदारों से ही पोषित,संचालित और नियंत्रित है। शक्ति के प्र्दशन में सत्ता प्राय: पुलिस को अचूक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है। हाल ही में शांतिपूर्ण सत्याग्रह पर दिल्ली पुलिस की दरिंदगी ,इसी तथ्य की ताजा मिसाल है। कहना न होगा कि पुलिस अमले में जमीनी स्तर पर बेइंतहा तनाव और अवसाद उसकी कार्यप्रणाली का अनिवार्य हिस्सा है। जो उसे अधिकतम क्रूर,आक्रामक, निरंकुश और काफी हद तक नपुंसक बनाता है। नेशनल क्र ाइम रिकॉर्ड ब्यूरो की मानें तो उसे पूरे देश में पुलिस के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें एमपी से मिलीं। यूपी दूसरे और महाराष्ट्र तीसरे नंबर पर है। एमपी का हर पांचवां पुलिसकर्मी दागी है। प्रदेश पुलिस से जुड़ा एक सनसनीखेज पहलू यह भी है कि डय़ूटी के दौरान जिंदगी से हार मानकर आत्महत्या करने वाले पुलिसकर्मियों के मामले में भी मध्यप्रदेश, देश में सबसे आगे है। नौकरी के दौरान देश में कुल 139 पुलिसवालों ने खुदकुशी की जिनमें से सबसे ज्यादा 31 पुलिसवाले मध्यप्रदेश के थे।

गुरुवार, 16 जून 2011

सोनम की मौत पर माया की मातमी सियासत



महज 14 साल की बदनसीब सोनम तो चली गई, लेकिन वह अपने पीछे छोड़ गई है, इंसानियत का कालिख पुता खौफनाक चेहरा..जिस्म और जिंदगी की भूखी हैवानियत का वहशी चेहरा, लेकिन शर्त यह है कि यूपी के एक थाने में पेड़ पर झूलती मासूम की लाश पर अब शर्मसार होने की गुंजाइश नहीं है। अब न आंखें नम होती हैं ,न दिल पसीजता है। दरअसल, आज के इस मौका और मतलब परस्त तेज रफ्तार दौर में अब अपनापन नहीं रहा। खून तो जैसे पानी हो गया है। अलबत्ता, राहगीरों के कदम आज भी ठिठकते हैं। तमाशबीनों की शक्ल में मजमा लगाकर भीड़ खुद ब खुद भीतर से टूटती है और, और.. फिर किर्चे-किर्चे बिखर जाती है। शैतानियत से मुकाबला कैसा? मुंह मोड़कर खिसक लेने के रिवाज हैं,यहां। थाने में एक नाबालिग से रेप और फिर गला दबाकर कर कत्ल के बाद आखिर कुछ कहने को बचता ही कहां है? लेकिन कमाल देखिए, सूबे की सीएम मायावती खामोश नहीं हैं। उन्हें सोनम के इस दुखांत में भी सियासत ही दिखती है। उन्हें मामले की सीबीआई जांच से इंकार नहीं ,मगर डर है कि कहीं इस केस का भी हश्र नोएडा की आरूषि जैसा न हो जाए। अब इतने बड़े सूबे की मालकिन को कौन समझाए कि आरूषि के आगे एक गरीब चौकीदार सोनम की क्या बिसात? दोनों की हैसियत,कैफियत,परिवेश,परिस्थितियां और अपराध की प्रवृत्ति अर्श के आगे फर्श जैसी है। माया की फिक्र जीते जी फांसी पर झुला दी गई फूल सी बच्ची के गुनहगारों को फांसी पर लटकाने में नहीं। वस्तुत: माया का भय तो फकत इतना है, कि अल्पसंख्यकों के मामले में बेहद नाजुक यूपीए सरकार की सीबीआई कहीं इसी बहाने उन पर कोई सियासी फंदा न फंसा दे। सफेदपोशों की सरपरस्त सियासत के असली चरित्र का यह कोई नया चेहरा नहीं है। माया को इस मसले में राष्ट्रीय मानवाधिकार के दखल पर भी सख्त एतराज है। उन्हें इसमें भी केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की राजनीतिक चाल दिखती है। अब माया को यह भी कौन बताए कि ऐसे संगीन और संवेदनशील मानवीय मामलों को स्वयं संज्ञान में लेना राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का नैतिक कर्तव्य भी है और संवैधानिक अधिकार भी। वस्तुत: यही मानवीय धर्म भी है। बहरहाल, सोनम के सवाल पर यूपी की सियासी सरगर्मियां उफान पर हैं। सोनम के शव के दो पोस्टमार्टम के बाद भी मुद्दों की भूखी कांग्रेस का पेट अभी नहीं भरा है। उसने तीसरे पोस्टमार्टम की मांग उठाकर राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दी हैं। भाजपा सीबीआई जांच की जिद पर अड़ी है। मायावती सरकार को लगता है कि उसने घटना के पांच दिन बाद एसपी समेत पूरे थाने को सस्पेंड करके अपने राज्य धर्म का निर्वाह कर दिया है। मामला शांत होते ही चुपचाप बहाली देकर सरकार अपने प्रशासनिक धर्म का भी निर्वाह कर लेगी। ऐसे में अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो देश में हर 60 मिनट में बलात्कार की दो वारदातों के सच को स्वीकार करता है तो हैरानी कैसी? आश्चर्य इस बात पर भी नहीं कि महिला अपराधों के मामले में भारत दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश है। 2009 की स्थिति में देश में 10 करोड़ लोग मानव तस्करी में शामिल थे। 30 लाख वेश्याएं थीं, जिनमें से 40 प्रतिशत बच्चे थे।

बुधवार, 15 जून 2011

सरकार की लाड़ली पेट्रोलियम कंपनियां



मनमोहन की अर्थशास्त्री सरकार को चाणक्य के अर्थशास्त्र की कम से कम यह उक्ति तो अंगीकृत करनी ही चाहिए कि राज्य को जनता से कर वैसे ही लेना चाहिए जैसे फूल को बगैर क्षति पहुंचाए मधुमक्खी रसपान करती है,मगर सरकारें हैं कि कर वसूली में आम आदमी का बड़ी ही क्रूरता के साथ खून चूसती हैं। पेट्रोल,डीजल,रसोई गैस और केरोसिन की कीमतों में सबसे ज्यादा हिस्सा टैक्स का होता है। केंद्र हो या राज्य सरकारें बैठे बैठाए करोड़ों का राजस्व कमाती हैं। केन्द्र सरकार साढ़े 7 फीसदी कस्टम ड्यूटी समेत प्रतिलीटर पर 7 प्रकार के कर माध्यमों से 29 रुपए वसूलती हैं,उधर पेट्रो कीमतों की वृद्धि पर प्राय: केंद्र को कोसने वाली राज्य सरकारें भी वैट ,सरचार्ज, सेस और इंट्री टैक्स लेती हैं। पेट्रोल पर देश का सर्वाधिक 28.75 फीसदी वैट मध्यप्रदेश में वसूला जाता है। मध्य प्रदेश सरकार इसी मद में एक फीसदी इंट्री टैक्स भी लेती है। अर्थशास्त्री कहते हैं,इन करों पर सरकार की जरा सी राहत भी आम आदमी के लिए बड़े काम की हो सकती है, लेकिन इसके विपरीत सरकारें जब-तब क्रूड ऑयल की आसमान चूमती कीमतों का खौफ खड़ा कर अपने खजाने भरने के रास्ते बनाती रहती हैं। वस्तुस्थिति तो यह है कि कर की सरकारी नीतियां स्वयं में स्वार्थपूर्ण हैं। जिसकी वजह से पेट्रोलियम पदार्थो के खुदरा मूल्यों की कीमतें बढ़ती हैं। पेट्रोलियम उत्पादों को बाजार के हवाले करने की मजबूरी वास्तव में सिवाय विधवा विलाप के कुछ और नहीं है,अगर मूल्य सरकारी नियंत्रण से बाहर ही हैं, तो पिछले माह मई में पेट्रोल के मूल्यों में अभूतपूर्व इजाफा करने वाली सरकार पांच राज्यों में प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के परिणामों का पूरे 6 माह तक इंतजार कैसे कर पाई? सवाल यह भी है कि नई दिल्ली के मुकाबले पाकिस्तान जैसे दरिद्र देश की राजधानी इस्लामाबाद में प्रति लीटर पेट्रोल 50 फीसदी सस्ता क्यों है? कोलंबो और ढाका में प्रति लीटर पर 17 प्रतिशत । चीन के बीजिंग और अमेरिका के वाशिंगटन की तुलना में नईदिल्ली का पेट्रोल 36 फीसदी मंहगा क्यों है? अगर भूटान के थिंपू और नेपाल के काठमांडू में दाम आसमान पर हैं तो इसकी सिर्फ एक ही वजह है कि इन दोनों देशों का निर्यात नियंत्रण भारतीय तेल कंपनियों के हाथ में है। यह कहना ठीक नहीं कि अंतराष्ट्रीय बाजार की बदौलत सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां 450 करोड़ के घाटे पर हैं। यह सही है कि पिछले दो वर्षो के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के मूल्य आसमान पर थे, लेकिन यह भी सही है कि इसी दौरान ओएनजीसी को 16041 करोड़, गैल को 2814करोड़, इंडियन ऑयल को 2570 करोड़ और ऑयल इंडिया को 2166 करोड़ का लाभ हुआ। विश्व बाजार में पिछले साल जब तेल की कीमतें गिरीं तो इसका लाभ देश के आम उपभोक्ताओं को क्यों नहीं मिला? सरकार को यह समझना चाहिए कि 50 करोड़ भारतीयों की जिंदगी पेट्रोल पर चलती है। अमेरिका के बाद दुनिया में यह दूसरी सबसे बड़ी आबादी है ,जो इसी दम पर रोज कमाती -खाती है। पेट्रोलियम पदार्थो में दर वृद्धि की मार भी इसी बेकसूर आबादी पर पड़ती है। चूंकि डीजल-पेट्रोल वाहन ईंधन हैं ,जो सीधे देश की परिवहन और यातायात को प्रभावित कर अंतत: महंगाई बढ़ाते हैं।

मंगलवार, 14 जून 2011

कांग्रेस: चाल, चेहरा और चरित्र



द सेंटिनरी हिस्ट्री ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस का पांचवां खंड बाजार में है। इसके संपादक हैं, पुराने कांग्रेसियों में एक वित्त मंत्री दादा प्रणवमुखर्जी। इस पुस्तक को पार्टी के आधिकारिक इतिहास (वर्ष1964-84)की संज्ञा दी गई है। पुस्तक का लब्बोलुआब यह है कि तीस दशक पहले कांग्रेस के मटियामेट के लिए इंदिरा गांधी दोषी थीं और आज कांग्रेस के पिं्रस राहुल गांधी सब कुछ ठीकठाक करने के लिए इन्हीं चुनौतियों से जूझ रहे हैं । तो क्या कांग्रेस सगंठनात्मक सत्ता के शीर्षस्तर पर इस हद तक बदलाव के दौर से गुजर रही है? उधर,अगर रक्षा मंत्री एके एंटनी की मानें तो भ्रष्टाचार और कालेधन के बहाने ही सही देश पारदर्शिता कं्राति की राह पर है और इसे समझने के लिए ना तो कांग्रेस तैयार है और नाही उसकी यूपीए सरकार। सवाल यह भी है कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस आखिर किधर जा रही है? उसकी चाल,चहेरे और चरित्र में आए हालिया बदलाव बताते हैं कि अंदर ही अंदर फिलहाल सब कुछ शुभ नहीं है। कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र का आलम तो यह है कि यूपीए सरकार हो या फिर स्वयं कांग्रेस परस्पर बयानबाजियों में एकरूपता नहीं है। इनके निहितार्थ भी आपस में खासे गुत्थम गुत्था से लगते हैं। कल तक डील को आतुर जिन केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को बाबा रामदेव के सारे मुद्दे व्यापक जनहित में लग रहे थे ,उन्हीं के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह को बाबा अब ठग नजर आ रहे हैं। सत्याग्रह पर आश्रित जिस भ्रष्टाचार विरोधी नागरिक आंदोलन को सरकार ने इतनी बेरहमी से पीट कर जिस तरह की रेडलाइन दी है, उससे कांग्रेस को कौन सा राजनैतिक फायदा होने जा रहा है? तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के खिलाफअभूतपूर्व जनादेश के बाद भी सरकार में डीएमके की भागीदारी आखिर कांग्रेस की आज कौन सी सियासी मजबूरी ह ैइससे देश को आखिर क्या संदेश मिलता है। सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि अण्णा हजारे में अगर कांग्रेस को आरएसएस का मुखौटा दिखता है तो फिर कथित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की सलामती के लिए सर्वधर्म प्रार्थना सभा के अलावा कोईऔर रास्ता नहीं बचता है। कांग्रेस के नेतृत्ववाली हिंसक हो चुकी यूपीए सरकार अगर यह सोच कर डंडे का जोर दिखा रही है कि राष्ट्रविरोधी सांप्रदायिक ताकतें भ्रष्टाचार की आड़ में देश को अस्थिर करना चाह रही हैं तो वह अप्रकट रूप से अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए ही जमीन तैयार कर रही है। देश जानता है कि कांग्रेस की यह भाषा नई नहीं है। सत्तर-अस्सी के दशक में भी कांग्रेस की यही जुबान थी। कहना न होगा कि यह भाषा कुछ-कुछ आपातकालीन है। सच तो यह है कि अंतत: अल्पसंख्यक बोट बैंक के गुणा-गणित में फंसी कांग्रेस के राष्ट्रीय सलाहकार उसे अपने उस मसौदे तक ले गए हैं, जो यूपीए सरकार को सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण विधेयक-2011 जैसे देश तोड़क कानून बनाने की प्रेरणा देता है। कांग्रेस के सलाहकार और रणनीतिकार कुछ भी कहें लेकिन हकीकत तो यह है कि अब वक्त आ गया है ,जब कांग्रेस अपने आंतरिक शुद्धीकरण के लिए आत्ममंथन करे। उसे पार्टी केअंदर और बाहर लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकपक्ष के जनहित की फिक्र करनी चाहिए । इसी में उसका भी हित है।

शनिवार, 11 जून 2011

दब्बू भारत और दबंग अमेरिका


देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई में 26/11के आतंकी हमले का असली सूत्रधार तहव्वुर हुसैन राणा अगर संघीय अदालत से बाइज्जत बरी हो गया तो इसमें अकेले अमेरिका का क्या दोष? किसी और पर इल्जाम लगाने से पहले क्या हमें हमारा गिरेबान नहीं देखना चाहिए? बहुत संभव है कि अमेरिका ने इसी बहाने पाकिस्तान को खुश करने के रास्ते तलाशे हों, मगर सवाल है कि राणा को गुनहगार साबित करने के मामले में हमारी सुरक्षा और जांच एजेंसियां अब तक क्या कर रही हैं? पाकिस्तानी मूल के इस अपराधी के खिलाफ भारत सरकार के पास ऐसे क्या प्रमाण हैं कि राणा को मुंबई बम ब्लास्ट पर सजा हो सकती है? जवाब वही सीधा सा है-राष्ट्रीय जांच एजेंसी(एनआईए) हमले के डेढ़ साल बाद भी मामले की जांच कर रही है। याद करें,इस घटना में 138 भारतीयों समेत 4 अमेरिकन नागरिक मारे गए थे। गौरतलब है,मुंबई हमले में अमेरिका के सिर्फ चार नागरिक मारे जाते हैं और एक साल के अंदर वहां की संघीय जांच एजेंसी (एफबीआई)इस हमले के दोनों सूत्रधारों डेविड कोल मैन हेडली उर्फ दाउद सैय्यद गिलानी और उसके गुर्गे तहव्वुर हुसैन राणा को शिकागो शहर से गिरफ्तार कर लेती है। और, हम हैं कि इस गंभीर मामले में आज भी अपने ही घाव चाट कर जख्म के सूख जाने का इंतजार कर रहे हैं। कल तक हाफिज सईद और दाउद इब्राहिम के पाकिस्तान स्थित ठिकानों की हवाई तस्वीरें दिखा कर एबटाबाद जैसे अमेरिकन ऑपरेशन का दंभ भरने वाले हमारे सियासी शेख चिल्लियों के पास आज आखिर क्या जवाब है? केंद्र सरकार के आंतरिक सुरक्षा सचिव कहते हैं, मुंबई मामले में राणा की रिहाई से भारत को झटका नहीं लगा है। ऐसा कहना तो शर्मनाक कुटिलता की पराकाष्ठा है,अगर झटका नहीं लगा तो फिर ऐसी किसी सफाई की जरूरत क्या है? दुनिया जानती है कि अमेरिकन कोर्ट से राणा की रिहाई के कारण भारतीय आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक समर्थन की हवा निकल गई है । कहना न होगा कि इस दुर्भाग्य पूर्ण नौबत के लिए हमारी जांच और सुरक्षा एजेंसियां किसी भी हालत में कम जिम्मेदार नहीं हैं। आंतरिक सुरक्षा सचिव कुछ भी कहें लेकिन इस विफलता का ठीकरा अकेले अमेरिका के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। वस्तुस्थिति तो यह है कि हम इस मामले में ठीक से अपनी ही पैरवी कर पाने में सक्षम नहीं हैं। एक हकीकत यह भी है कि अहिंसा की आड़ में कायरता हमारा राष्ट्रीय धर्म बन गया है। हमारी केंद्रीय सत्ता शांतिप्रिय सत्याग्रह जैसे घरेलू मामलों में तो बर्बरता की हद तक हिंसक हो सकती है लेकिन वैश्विक मंच पर हम इतने भी आक्रामक नहीं हो सकते कि अपने पक्ष को तथ्यों और तर्को के साथ रख सकें। बेशक, अमेरिका की संघीय अदालत का यह फैसला गले नहीं उतरता। राणा के साथ लश्कर-ए-तयैबा के साथ उसके रिश्ते तो साबित हुए हैं लेकिन ये संबंध भारत नहीं डेनमार्क के मामले में हैं। यह फैसला एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि करता है कि अमेरिका कम से कम भारत के लिए भरोसेमंद नहीं है। एक बड़ा रक्षा सौदा खो देने के बाद भी अगर लादेन के खात्मे के साथ ही अमेरिका -भारत के इतना करीब आया था तो इसमें उसका ही स्वार्थ था। अमेरिका की पैंतरेबाजी अपनी जगह है। सवाल यह है कि हमारी हैसियत क्या है?

शुक्रवार, 10 जून 2011

ऑनर किलिंग: कानून का क्या काम..




प्यार के फेर में फंसी अपनी बहन की गला काट कर हत्या करने के बाद उसका भाई फरार हो जाता है। बूढ़ी विधवा मां दहाड़ें मार-मार कर रोती है। इस मां की आखिर क्या पीड़ा हो सकती है? बेटी की निर्मम हत्या या फिर उसका हत्यारा बेटा? सच तो यह है कि इनमें से दोनों नहीं। मां की फिक्र उसकी अपनी नितांत निजी है। मां को अब सिर्फ एक ही फिर्क खाए जा रही है कि उसका इकलौता बेटा ही उसके बुढ़ापे में लाठी का सहारा था। हाय,राम ! अब क्या होगा? विलाप करती मां बार-बार कहती है,रही बात बेटी की तो उसे अगर बेटा नहीं मारता तो मैं मार डालती..यूपी के सीतापुर में ऑनर किंलिंग का यह हालिया चेहरा इस मनोवैज्ञानिक सामाजिक समस्या पर कई संगीन सवाल उठाता है। ऐसे ही एक मामले में उत्तर प्रदेश के ही मुरादाबाद में अपनी दो सगी बेटियों को मौत के घाट उतारने वाली हत्यारिन मां को कोर्ट ने ताउम्र कैद की सजा सुनाई तो उसकी चेहरे पर हवाइयां हरगिज नहीं उड़ीं। इज्जत के लिए तीसरे हत्याकांड के मामले में एटा की एक स्पेशल कोर्ट ने जब दस हत्यारों को फांसी की सजा सुनाई तो कातिलों से कदाचित किंचित मात्र भी अपराध जैसा कोई बोध नहीं झलका। दरअसल, पछतावा विहीन यह बर्बर और आदिम मानसिकता बताती है कि कानून बहुत कुछ कर पाने की हालत में नहीं है। एक गैर सरकारी सव्रेक्षण कहता है कि झूठी आन-बान और शान के लिए देश में सालाना साढ़े 6 सौ से भी ज्यादा युवक-युवतियों को कुर्बान कर दिया जाता है। इन मामलों में वे आंकड़े भी शामिल हैं, जिनमें सगोत्रीय जोड़े होने के बाद भी उन्हें सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया गया क्योंकि उनकी शादी मां-बाप की मर्जी के खिलाफ थी। कल तक ऑनर किंलिग के सवाल को राज्यों का विषय बताने वाली यूपीए की केंद्र सरकार अब इस मामले में आनन-फानन में मानसूत्र के दौरान कानून लाने वाली है। सवाल यह है कि कानून आखिर क्या कर लेगा? ऐसे अपराधों पर दंड तय करने के तमाम पर्याप्त कानून पहले से मौजूद हैं। वस्तुत:यह विशुद्ध सामाजिक मनोवैज्ञानिक समस्या है। इसकी जड़ें संस्कृति और संस्कारों से परंपरागत तौर पर गहरे से जुड़ी हुई हैं। जाहिर है, इस संकट का निदान भी यहीं ,कहीं इसी के इर्द-गिर्द देखना होगा। यह कोई राजनैतिक विषय नहीं है, अलबत्ता अहम बात यह है कि ऑनर किंलिंग जैसे अपराधों की जड़ में बैठी खाप पंचायतें स्थानीय स्तर पर अपना जोरदार राजनैतिक रसूख रखती हैं। थोक वोट बैंक के प्रबंधन और उसके धुव्रीकरण में भी फतवों के माफिक इनके फरमान चलते हैं। समनांतर सत्ता का पर्याय ये पंचायतें कितनी ताकतवर हैं ,इस बात का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे न केवल बर्बर वारदातों को कानूनी मान्यता दिलाने का एलानिया समर्थन करती हैं अपितु अपनी नाक के सवाल पर इसके खिलाफ निहित संवैधानिक प्रावधानों को भी आंख दिखाने का हौसला रखती हैं। क्या केंद्रीय सत्ता झूठे मान के लिए हत्या जैसी जघन्य वारदातों की पोषक खाप पंचायतों पर अंकुश लगाने के लिए कड़े कानूनी प्रावधान कर पाएगी? और अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो उसे यूथ बोट बैंक को भरमाने के कानून बनाने के नाम पर राजनीति करने की जरूरत नहीं है।

गुरुवार, 9 जून 2011

राजनीति की मैली गंगा


राम की मैली गंगा। असल में आखिर, किसकी गंगा? स्वयंभू धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस की या फिर कथित धुर धर्माध भाजपा की..अब गंगा पर हक हथियाने की होड़ तकरीबन तय है। घोर कलयुग का कमाल देखिए , पापियों के पाप धोने से पतित हुई पुण्य सलिला गंगा को पवित्रता की गारंटी भी अब गंदली राजनीति ही देगी। गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारने के लिए कभी भागीरथ ने भी इतना जोर न मारा होगा,जितना जोर अब गंगा के लिए यूपी के आसन्न चुनावी दंगल में लगने वाला है। उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव से ठीक थोड़ा पहले सियासी तौर पर निहत्थी भाजपा ने वहां जमीन खोजती कांग्रेस के नहले पर जिस तरह से दहला मारा है,इससे फिलवक्त यही संकेत मिलते हैं। कहना न होगा कि कल तक एक अदद मुद्दे की भूखी भाजपा अब कांग्रेस के एक बड़े सुनियोजित चुनावी हथियार को हथियाने में सरसरी तौर पर कामयाब रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ यह वही कांग्रेस है, जिसने नवंबर 2008 में सात राज्यों के साथ-साथ लोकसभा के प्रस्तावित आम चुनावों के दौरान गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देने के मसले को कैश कराने की रणनीति अपनाई थी। तब सत्ताधारी कांग्रेस ने गंगा की आड़ में एक तीर से तीन निशाने साधे थे। बहुसंख्यक हिंदू वोट बैंक का दिल जीतने, हिंदूवादी नेताओं का जनाधार बढ़ाने में मददगार गंगा के आंदोलनकारी समाजसेवी संगठनों का दम तोड़ने और यूपी की सीएम मायावती की बहुउद्देश्यीय गंगा एक्सप्रेस की हवा निकालने में यह कथित धर्मनिरपेक्ष दल कितना कामयाब रहा, यह तय कर पाना तो मुमकिन नहीं । मगर इतना तय है कि सरकारी वायदे के तीन वर्ष बाद भी केंद्रीय गंगा नदी प्राधिकरण का अपना कोई वजूद नही है। देश ने इसकी कभी कोई गतिविधि नहीं देखी है। दरअसल वोट की राजनीति के लिए देश के किसी भी सियासीदल का यही असली चरित्र है। गंगा पर राजनीति की एक और रणनीति एक बार फिर अपनी भूमिका में है। लाखों लाख आस्थाओं की प्रतीक पवित्र नदी गंगा सदियों से भारत के मान सम्मान और स्वाभिमान का सवाल रही है, मगर बावजूद इसके अगर 1985 में तबके प्रधानमंत्री राजीव गांधी के गंगा एक्शन प्लान को बतौर अपवाद छोड़ दें तो इसके बाद गंगा की अस्मिता और अस्तिव के लिए फिर कभी कोई सरकारी सक्रियता नहीं दिखी । अलबत्ता इसके सियासीकरण की कोशिशें प्राय: होती रही हैं। वस्तुत:गंगा का सतही सियासत से कोई नाता नहीं है। कोई नदी यूं ही मां नहीं हो जाती! इसके लिए अगाध समर्पण और निर्बाध समग्र सेवा भाव चाहिए। दल-दिल बांटते हैं। गंगा इंसानी सीमाओं को तोड़कर अंतरदेशीय हो जाती है। वह सिर्फ भारत के हर 10 में से 4 लोगों का पोषण नहीं करती अपितु दुनिया के 1/8 आबादी के पालन की परवाह भी उसकी अपनी है, लेकिन देश के सियासतदारों की गंगा के प्रति नीयत कभी ठीक नहीं रही। सरकारी नीतियां बताती हैं कि इस देश में गंगा की अब यही नियति है। कोई गंगा से भी तो पूंछे कि आखिर वह चाहती क्या है? वर्ना ,अगर लोग यही चाहते हैं कि पतितों की इस धरती से अब गंगा को विदा हो जाना चाहिए तो गंगा को भी इससे कोई गुरेज नही है। एक अध्ययन की मानें तो डेढ़ दशक के अंदर गंगा सूख जाएगी। गंगा शायद भी रहे ,लेकिन गंगा वस्तुत: गंगा नहीं रह जाएगी..

बुधवार, 8 जून 2011

उमा की गंगा बनाम शिव की नर्मदा



साधना से संकल्प कैसे फलीभूत होते हैं? राजा भगीरथ के तपोबल से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की एक पौराणिक कथा कमोबेश ऐसी ही कहानी है। अहंकार से भरी वेगवती गंगा को आखिर संभाले तो संभाले कौन? प्रचंड वेग को संभालने की शक्ति शिव के सिवाय किसी और में नहीं थी। अब, अगर सात साल के कठिन सरकारी श्रम से अटल-उमा संकल्प को उपकृत करती नर्मदा सत्तर किलोमीटर का लंबा सफर तय कर राजधानी पहुंची है ,तो उसकी एक-एक बूंद को सहेजने का सवाल सबसे बड़ी चुनौती है। तब, गंगा को संभालने के लिए शिव-शक्ति सामने थी और अब नर्मदा को सहेजने का सारा दारोमदार शिव-सत्ता पर है। यह भी एक इत्तफाक ही है कि बजरिए उमा जहां गंगा भाजपा का नया सियासी मुद्दा है । वहीं राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए प्रदूषण से पस्त ,पतित पावनी नर्मदा एक बड़ी चुनौती है। प्रदेश के 16 जिलों में सौ से भी ज्यादा सरकारी नालों की बदौलत नर्मदा का पावित्र जल आज पीना और नहाना तो दूर आचमन के लायक भी नहीं बचा है। इससे पहले फौरी तौर पर सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि राजधानी में नर्मदा जल को सरकारी अमला आखिर कैसे संभाले और सहेजेगा? तकरीबन 339 सौ करोड़ के नर्मदा प्रोजेक्ट की कामयाबी सिर्फ इस बात पर निर्भर है कि पानी का ज्यादा से अपव्यय रोका जाए। वर्ना, करोड़ों के कोलार प्रोजेक्ट की नाकामी की कहानी सब के सामने है। सरकारी आंकड़ों पर ही यकीन करें तो राजधानी की 285 वर्ग किलोमीटर की नगर सीमा परिधि में 6 हजार से भी ज्यादा ऐसे छोटे-बड़े लीकेज हैं ,जिनसे रोजाना 6 करोड़ लीटर पीने लायक पानी बेकार में बह जाता है। ऐसे ही एक अनुमान के मुताबिक इन लीकेज के मेंटीनेंस में सालाना डेढ़ करोड़ रूपए खर्च किए जाते हैं। राजधानी के जिस पुराने भोपाल इलाके में भीषण जलसंकट है, उस क्षेत्र में पानी कीआपूर्ति का नेटवर्क भरोसे के काबिल नहीं है। पाइप लाइनें सौ साल पुरानी हैं। राजधानी को रोज 362 एमएलडी पानी की आवश्यकता होती है। सब जानते हैं कि मांग के मुकाबले उपलब्धता एवं आपूर्ति में भारी अंतर वस्तुत: जल संरक्षण और उसके वितरण में कुप्रबंधन का नतीजा है। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि असलियत जब यह है तो ऐसे में नर्मदा प्रोजेक्ट से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है? एक और सरकारी दावे के अनुसार अकेले नर्मदा प्रोजेक्ट से प्रतिदिन185 एमएलडी जलापूर्ति संभव है, लेकिन आशंका है कि कुल आपूर्ति की तकरीबन 25 फीसदी जलराशि सप्लाई की पुख्ता व्यवस्था नहीं होने के कारण बेकार चली जाएगी। हालांकि, नर्मदा प्रोजेक्ट के तहत ही पुराने भोपाल में 415 करोड़ की शुरूआती लागत से 23 सौ किलोमीटर लंबी पाइप नई पाइप बिछाने की भी योजना है, लेकिन यह प्लान फिलहाल दूर की कौड़ी है। इसके अमल में कम से कम 6 साल लगेंगे। जाहिर है, नर्मदा जल का लाभ फिलहाल जरूरतमंदों को मिलने के उम्मीद कम ही है। राजधानी में पानी का असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। कहीं पानी ही पानी है तो कहीं बूंद-बूंद जल के लिए लोग मोहताज हैं। अब देखना यह है कि राम-रोटी,गौ और अब गंगा में जनाधार ढूंढती भाजपा की सत्ताधारी सरकार आखिर नर्मदा उद्धार के लिए क्या कदम उठाती है?

मंगलवार, 7 जून 2011

दहशतगर्दो के निशाने पर देश का दिल



यह कहना कितना दुखद और शर्मनाक है कि इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) और प्रतिबंधित स्टूडेंट इस्लॉमिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के 8 खूंखार आतंकवादियों की गिरफ्तारी अंतत: एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड (एटीएस)के एक और जवान की शहादत का नतीजा है। हाल ही में रतलाम में सिमी के साथ मुठभेड़ के दौरान एक तरह से निहत्थी एटीएस टीम जिस तरह से लाचार दिखी,इससे इस बात का अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि अत्याधुनिक हथियारों से लैस आतंकवादी गतिविधियों के मुकाबले मध्यप्रदेश पुलिस आखिर कितनी सतर्क और सशक्त है। एटीएस अगर अपना एक और साथी खोने के बाद हरकत में नहीं आती तो शायद देश के ये दुश्मन जाने कब और कहां खून की होली खेलकर ठहाका लगा रहे होते? इस बड़ी कामयाबी पर पुलिस के खुफिया तंत्र को खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए। अलबत्ता यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि रतलाम में मुठभेड़ एक मामूली सी मुखबिरी का नतीजा थी,अगर ऐसा नहीं होता तो एटीएस का ऑपरेशन किन्ही सटोरियों की गिरफ्तारी जैसा नहीं होता और..और,एक शहादत का कलंक माथे पर नहीं लगता। प्लानिंग कुछ ऐसी होती जैसा एक्शन जबलपुर से भोपाल के बीच हुआ, लेकिन इस कामयाबी के तार भी रतलाम से ही जुड़े हुए हैं। इसे इत्तफाक ही कहें कि एक लाख का इनामी फहरत उर्फ खालिद एटीएस के हत्थे चढ़ गया और इसी की निशानदेही पर इंडियन मुजाहिदीन का मास्टर माइंड अब अबू फजल भी गिरफ्त में है। अबू वह शख्स है ,जिसने सिमी चीफ सफदर नागौरी की गिरफ्तारी के बाद मध्यप्रदेश में उसके आपराधिक सत्ता संभाल रखी थी। उधर, फैजल पाकिस्तान में बैठे इंडियन मुजाहिदीन के टॉप लीडर रियाज भटकल और इकबाल भटकल के संपर्क में था और इधर,फहरत भी अबू से लगातार संपर्क बनाए हुए था। आतंकी गतिविधियों के प्रति जहां तक प्रदेश पुलिस की सक्रियता का सवाल है, तो एटीएस के एक और जवान का कातिल यह वही फहरत है, जो एक साल पहले इंदौर की परदेसीपुरा पुलिस की चूक का लाभ लेकर जमानत पर भाग निकला था । इस समूचे घटनाक्रम से यह बात तो साफ हो गई है कि देश का दिल मध्यप्रदेश नए सिरे से दहशतगर्दो के निशाने पर है। खासकर इंडियन मुजाहिदीन की जड़ों को मजबूत करने के लिए प्रतिबंधित सिमी का नेटवर्क किसी कैरियर की तरह काम करता है। सवाल यह है कि वे कौन सी ताकते हैं ,जो स्टूडेंट इस्लॉमिक मूवमेंट ऑफ इंडिया का स्थानीय स्तर पर पोषण करती हैं ? आखिर आस्तीन के इन सांपों को कब चिहिंत किया जाएगा? वे कौन से कारण हैं,जो आईएम या सिमी के लिए मध्यप्रदेश को सेफ जोन बनाते हैं। यह कहना ठीक नहीं कि प्रदेश में सिमी नए सिरे से अपना नेटवर्क बना रही है। इस तथ्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि राज्य में आईएम और सिमी का मजबूत गठबंधन नापाक इरादों को अंजाम देने के लिए सक्रिय है और उसे सिर्फ मौके की तलाश है। जबलपुर और भोपाल में सक्रिय आतंकियों की गिरफ्तारी बताती है कि भ्रष्टाचार से आंदोलित देश के इस नाजुक मौके का आतंकी फायदा उठाने की फिराक में थे। सवाल यह भी है कि आखिर इसके लिए मध्यप्रदेश को ही क्यों चुना गया था?

सोमवार, 6 जून 2011

हिंसक सरकार से सिर्फ एक सवाल




पूरा देश दंग है। गांधी के देश में कथित गांधीवादी सरकार के हाथों एक सत्याग्रह की ऐसी त्रसदी। कोई जनतांत्रिक सत्ता इतनी निर्मम और निरंकुश भी हो सकती है,सहसा यकीन नहीं होता। हिंसक होती भीड़ तो देश ने कई मर्तबा देखी है,लेकिन बेवजह यूं हिंसक हुई सरकार के बर्बर व्यवहार से देश पहली बार दो-चार हुआ है। क्या किसी भी सरकार को यूं कानून हाथ में लेने का अधिकार है? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि शांतिप्रिय सत्याग्रह कर रहे बाबा और उनके समर्थकों पर सीधे दमन की आक्रामक कार्रवाई के पीछे सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी? असलियत तो यह है कि सरकार के पास भी इस सवाल का कोई तार्किक जवाब नहीं है। जवाब में सराकर के बड़बोले सिर्फ कुतर्क कर रहे हैं। बचाव में उनके पास महज बेशर्मी भरे गैर जिम्मेदाराना जवाब ही हो सकते हैं। असल में गजब के माइंड और अद्भुत ‘मॉस मैनेजमेंट’ देखकर सरकार का संयम टूट गया। बाबा के समर्थन में भीड़ देखकर भीतर से भयभीत यूपीए सरकार स्वयं में ही चकरा गई। सरकार के सलाहकारों को लगा कि नागरिक आंदोलन की आड़ में उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अपना जनाधार मजबूत कर रहें हैं। कांग्रेस के नेतृत्तववाली यूपीए सरकार को इस भीड़ के आगे भाजपा और पीछे से आरएसएस के भूत क्या दिखे कि वह चोरों के माफिक देर रात सीधे लाठी,गोली और बंदूक पर उतर आई। सरकार चाहती तो फौरी तौर पर सीधे(नाटकीय नहीं,जैसा उसने किया)समझौते करके बाबा के दबाव की हवा निकाल सकती थी। नासमझी में ही सही अण्णा हजारे की हजार समझाइश के बाद भी बाबा ने स्वयं सरकार के लिए सारे रास्ते खोल कर रखे थे, लेकिन सरकार ने अण्णा की तरह बाबा रामदेव को मुद्दों से भटकाने के बजाय भड़काने की रणनीति अपनाई। बाबा की तमाम कमजोर कड़ियों से इंकार नहीं लेकिन, बौखलाई सरकार ने बर्बर फैसला लेने से पहले इस बात की भी फिक्र नहीं कि उसके इस कदम से देश में हिंसा भड़क सकती है। आखिर संविधान का कौन सा प्रावधान किसी भी सरकार को देश में आग लगाने का अधिकार देता है? कहना न होगा कि रामदेव को लेकर सियासत की सिर्फ एक ही फिर्क रही है कि वह राजनीति क्यों कर रहे हैं? क्या इस लोकतांत्रिक देश में किसी अराजनैतिक भारतीय नागरिक को कानून के दायरे में रह कर राष्ट्रहित से जुड़े सामाजिक सरोकार के राजनैतिक सवाल उठाने का कोई अधिकार नहीं है? क्या सारा ठेका सफेदपोश सियासतदारों की ही थाती है? बाबा हों या अण्णा आज अगर इन दोनों को भारी समर्थन मिल रहा है तो इसका सिर्फ एक ही कारण है कि राजनीति से आमआदमी का भरोसा सियासतदारों की ऐसी ही हरकतों के कारण उठता जा रहा है। सत्याग्रह पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी भूमिका आदतन बहुत आशाजनक नहीं रही है। खासकर ऐसे मौकों पर अक्सर मसालों की भूखी मीडिया कभी भी किसी के भी बयान को जिस तरह से कंट्रोवर्सी में बदलती रही है,इससे वह छल-कपट की राजनीति में माहिर सियासत के तमाम बड़बोलों का बेवजह पोषण तो करती ही है,इससे वह किसी और का नहीं अपितु अपने ही भरोसे का भी खून करती है।